श्री वासुपूज्य जिनपूजन । Shri Vasupijya Bhagwan Puja

श्री वासुपूज्य जिनपूजन

                  सवैया तेईसा 
              तर्ज-वीर हिमाचल ..) 

बालयती वसुपूज्यतनय, प्रभु वासव सेवित त्रिभुवन नामी ।
बारहवें तीर्थंकर हो, संयुक्त सुगुण छियालिस अभिरामी ॥
मुक्तिमार्ग मिला भविजन को दिव्यध्वनि द्वारा हे स्वामी ।
भाव भये शुभ पूजन के, तिष्ठो उर में हे अन्तरयामी ॥

                 (दोहा)

हर्षित हो पूजूँ चरण, चिंतूं गुण अभिराम ।
आराधूं परमात्म पद, पाऊँ शाश्वत धाम ॥

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

          (छंद-गीतिका)

निज आत्मतीर्थ सु पाइया, समतामयी जल जहाँ भरा। मिथ्यात्व मल छूट्यो प्रभो ! स्नान करि निर्मल भया ।।
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र की पूजा करूँ अति चाव सों।
आनन्दमय ब्रह्मचर्य वर्ते, नाथ! सहज स्वभाव सों ॥।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय जन्म- जरा मृत्यु - विनाशनाय जलं नि. स्वाहा ।

भव ताप नाशा देव ! शीतलता स्वयं में ही मिली।
आराधना की युक्ति पाई, सहज निज परिणति खिली ॥
श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र की पूजा करूँ अति चाव सों।
आनन्दमय ब्रह्मचर्य वर्ते, नाथ! सहज स्वभाव सों ।।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा ।

अक्षय अबाधित ज्ञानमय, चैतन्यप्रभु पाया अहो ।
तुष बिना तन्दु सम अमल, अक्षय स्व-पद आधार हो ।। श्री ।।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा ।

प्रभु ! तुम गुणों की पुष्पमाला, कंठ में धारण करूँ ।
निष्काम ब्रह्मस्वरूप ध्याऊँ, अब्रह्म परिणति परिहरू ।। श्री ।।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-जिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा

शुद्धात्म अनुभव के समान, न रस दिखे तिहुँलोक में ।
ताके आस्वादी क्षुधादिक, नाशे बसे शिवलोक में ॥ श्री ॥

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा

चैतन्य ज्योति सु जगमगे, मोहान्धकार नहीं रहे ।
फिर बाह्य दीपक भी सहज निस्सार मुझको भी लगे ।। श्री ।।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।

आनन्दमय आराधना से ध्यान की अगनी जले।
निज सुगुण विल सर्व वैभाविक करम ईंधन जले ॥ श्री ॥

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि. स्वाहा

तिहुँलोक पूजित सिद्धपद, आराधना का फल महा ।
यह जानकर लौकिक फलों का भाव नहीं किंचित् रहा ।। श्री ।

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि. स्वाहा

निर्भेद निरघ सु अर्घ्य लेकर, ज्ञानमय आनन्दमय ।
मैं अर्चना करता प्रभु, निर्द्वन्द्व पद पाऊँ अभय ॥ श्री ॥

ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य - जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

             पंचकल्याणक अर्घ्य

              (छंद द्रुतविलम्बित)

होय च्युत महाशुक्र विमान से आये विजया माता गर्भ में।
षाढ़ कृष्णा षष्टिमी थी सही, धनि हुई चम्पापुर की मही ।।

ॐ ह्रीं आषाढकृष्णषष्ठ्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

चतुर्दशि फागुन की श्याम है, जन्म अन्तिम प्रभु अभिराम है।
किया था अभिषेक सुमेरु पर, पुण्यशाली इन्द्रों ने आनंद कर ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

ब्याह अवसर पर प्रभु वैराग्य धरि, भव शरीर कुभोग असार लखि ।
चतुर्दशि फागुन कलि शुभघड़ी, अहो मुनिपद की सहज दीक्षा धरी ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण चतुर्दश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

शुक्ल ध्यान महान लगाइया, ज्ञान केवल जिनवर पाईया।
दिव्यध्वनि भई मंगलकार है, दूज भादव कृष्ण की सुखकार है

ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णद्वितीयायां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. ।

चतुर्दशी सित भादौं की सही, लही प्रभुवर ने अहो अष्टम् मही।
तीर्थ चम्पापुर महासुखदाय है, अर्घ ले जजिहौं सहज शिवदाय है ॥

ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्ल चतुर्दश्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. ।

                 जयमाला
                    (दोहा)

इन्द्रादिक पूर्जे चरण, महाभक्ति उर धार।
गावें जयमाला प्रभो ! आतमनिधि दातार ।।

                   (चौपाई)

जय जय वासुपूज्य भगवान, गुण अनन्त मंगलमय जान ।
भरि यौवन में सहज विराग, भोगों प्रति उपज्या नहिं राग ।।
निज में प्रमुदित बाह्य उदास, आत्मसाधना का उल्लास ।
जगत विभव किंचित् न सुहाय, तत्त्व विचार करें सुखदाय ।।
शुद्धातम ही जग में सार, अविनाशी सुख का आधार ।
इन्द्रिय सुख तो दुख । दुख के मूल, फल में उपजें भव भव शूल ।। संसारी निज ज्ञान विहीन, इन्द्रिय मद मेटन बलहीन ।
विषय चाह उपजावे दाह, भोगन में भूले शिवराह ।
आत्मज्ञान बिन शरण न कोय, व्यर्थ मोह में क्लेशित होय ।
अब विलम्ब करना नहीं जोग, धरूँ शीघ्र शिवदाता योग ।।
सब विधि अवसर मिलो महान, जीतूं कर्म लहूँ निर्वान |
दृढ़ विराग उपज्या सुखदाय, तत्क्षण लौकान्तिक सुर आय ।।
अनुमोदन कर शीश नवाय, धन्य विचार कियो जिनराय ।
दीक्षा धरो प्रभो ! अविकार, भायें भावना हम हू सार ॥
इन्द्रादिक आये हर्षाय, प्रभु को तपकल्याण मनाय ।
उत्सव सों प्रभु वन में गये, वस्त्राभूषण सब तजि दये ।।
पंच मुष्ठि कचलौंच कराय, निर्ग्रथ रूप धर्यो सुखदाय ।
आत्म ध्यान की धुनी लगाय, एक वर्ष छद्मस्थ रहाय ।।
चढ़े क्षपक श्रेणी सुखकार, प्रगट्यो अर्हत् पद अविकार ।
भविजन को शिवराह दिखाय, सिद्धालय में तिष्ठे जाय ॥
ज्ञान माहिं हे देव निहार करें अर्चना मंगलकार ।
प्रभु चरणों में शीश नवाय, अद्भुत परमानन्द विलसाय ।।

           (छन्द-पत्ता)

प्रभु अमल अनूपं शुद्ध चिद्रूपं, सहजानंदमय राजत हो।
निष्काम जिनेश्वर, जजूँ महेश्वर, शिव मारग विस्तारत हो ।।

ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमालाऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

                  (दोहा)

बाल ब्रह्मचारी प्रभो ! वासुपूज्य जिनराज ।
करि सम्यक् आराधना, पाऊँ निजपद राज ||

॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह