जिस मति का विषय स्व तत्व अहो, वही सुमति कहलाती है |
हे सुमतिनाथ तव द्रव्यदृष्टि, अंतर में सुमति जगाती है ||
तव वीतराग सर्वज्ञ दशा, लख राग शून्य और ज्ञान पूर्ण |
निज भाव दृष्टी में आता है, आकुलता नहीं दिखाती है ||
हो नमन कोटिशः प्रभो आपको, अंतर निधि दर्शाते हो |
निधि पाने का भी अंतर में ही, सहज उपाय सुझाते हो ||
ज्यों मिश्री स्वयं मिठास पूर्ण, मैं भी स्वभावतः त्यों सुखमय |
सुख हेतु नहीं, कुछ भी करना, मंगल ध्वनि हृदय गूंजाती है ||
जितने भी करने के विकल्प, वे सब ही दुःख उपजाते हैं |
निज पर स्वभाव को भूल, मूढ़ कर्तृत्व धार अकुलाते हैं ||
हे नाथ ! आपका दर्शन कर, सम्यक प्रतीति जागी उर में |
कर्तापन तज निज भाव लखा, आकुलता नहीं दिखाती है ||
अब यही भावना है जिनवर, उपयोग नहीं बाहर जावे |
बस परम पूज्य जिनवर तुम सम, ही निज स्वभाव में रम जावे ||
सर्वोत्कृष्ट मम परम भाव, चेतन वैभव परमाभिराम |
लखकर निरपेक्ष सहज सुखमय, आल्हाद लहर उमड़ाती है ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’