श्री सुकौशल गाथा | shri sukoshal gatha

श्री सुकौशल गाथा

निज भाव की आराधना ही नित्य मंगलकार है।
निज भाव ही ध्रुव मंगलोत्तम शरण जग में सार है। टेक ॥

लख सूर्यग्रहण सु कीर्तिधर नृप सोचने मन में लगे।
ये ही दशा संसार की जहँ मोहवश सुख-सा लगे॥
रे रंक विषयासक्त क्षण में काल के मुख में परे।
जो मोहवश हैं पाप बाँधे तिन उदय अति दुःख भरे ॥
साथी सगा कोई न हो, धन विभव काम न आवते।
निज आत्मा के भान बिन तड़फावते भरमावते ॥
शुद्धात्मा की साधना बिन हो न भव से पार है।। निज ॥

है सार आतमज्ञान जग में फल सहज वैराग्य हो । निजभाव में हो लीनता, सुख शान्ति का साम्राज्य हो ॥ सर्वस्व मेरा है सु मुझमें, बाह्य में कुछ भी नहीं।
झूठा है पर का मोह चेतन क्लेश का कारण सही ॥
अब तो उचित मुझको यही, निर्ग्रन्थ पद धारण करूँ ॥ निष्काम हो निर्द्वन्द्व हो, परमात्मपद साधन करूँ ॥
ध्याऊँ स्व ध्येय रूप जो परमेष्ठी पद आधार है ।।निज ॥

मंत्री पुरोहित और सामन्तों से यों कहने लगे।
तुम सब सम्हारो राज्य हम दीक्षा धरें निज में पगें ॥
कहने लगे सब लोग नृपवर यह अरज चित्त धारिये।
कुलरीति से दे राज्य सुत को आप दीक्षा धारिये ॥
राजा बिना नाशे प्रजा अरु धर्म का अभाव हो ।
रुक जाँय कुछ दिन आप जिससे सर्व का निर्वाह हो । सुत देखते दीक्षा धरूँ, कीना नियम सुखकार है। निज ॥

फिर कुछ दिनों में पुत्र का भी जन्म था घर में हुआ।
पर गुप्त रखी वह खबर, था मोह रानी को बढ़ा। भवितव्य को पर कौन टाले काललब्धि आ गई।
इक विप्र ने दरबार जाकर सूचना नृप को दई ॥
पन्द्रह दिवस के पुत्र को दे राज्य दीक्षा को चले।
उल्लास से थे शोभते शुक पींजड़े से ज्यों उड़े ॥
हुए अकिंचन पाणिपात्री वंदना सुखकार है ।निज ॥

मान मत्सर से रहित करूणामयी मुनिराज वे।
आये नगर में एक दिन निर्दोष चर्या के लिए |
रे मोह की देखो छटा लख क्रोध रानी को हुआ।
मम पुत्र भी जावे चला भयभीत अन्तस्तल हुआ ॥
जो पूर्व में पति थे नृपति थे साधु थे वर्त्तमान में।
उनको तिरस्कृत कर निकाला था अरे! अज्ञान में ॥
सत्य जानो मोह ही सब पापों का सरदार है ॥ निज ॥

यों देख अविनय साधु की रोने लगी थी धाय माँ ।
वृत्तांत से अनभिज्ञ नृप आये सुकौशल थे वहाँ ॥
पूछा सहज ही प्रेम से हे मात कारण क्या कहो?
सुनकर दुःखद वृत्तांत दौड़े साधु दर्शन को अहो ॥
पीछे भगे सेवक सभी वाहन चमर छत्रादि ले।
तब तक सुकौशल जाय पहुँचे अतिनिकट मुनिराज के॥ शीश चरणों में नवा माँगी क्षमा अविकार है। निज।।

रोने लगे कहने लगे संसार दीखा दु:खमय।
व्यवहार जग का मोहमय अज्ञानमय अरु पापमय॥ निर्मोह हो निर्ग्रन्थ होऊँ तात! आज्ञा दीजिए।
करके कृपा निज पुत्र को भी आप-सम ही कीजिए॥
मैं भी अतीन्द्रिय ज्ञान-अमृत पान करते पुष्ट हो।
निशल्य हो होऊँ मगन निज भाव में संतुष्ट हो ॥
राज्य दे गर्भस्थ बालक को तजा संसार है। निज…

मिथ्या विकल्पों से न कुछ होता अरे निश्चय करो।
कर्तृत्व का अभिमान दु:खमय ज्ञान से सब परिहरो ॥ मुनिराज की अविनय करी रानी सु ममताधार है।
वह ही निमित्त हुई अरे वैराग्य की सुखकार है॥
भवितव्य को चाहें बदलना मूढजन संसार के।
भवितव्य को स्वीकार ज्ञानी मुक्तिमार्ग सम्हारते ॥
धनि-धनि सुकौशल स्वामी का वैराग्य जगहितकार है। निज

मेघमंडल से रहित रवि सम मुनीश्वर शोभते ।
वे वस्त्र भूषण से रहित भी भव्यजन मन मोहते॥ वैराग्यमय मुद्रा अहो नश्वर जगत दर्शावती।
शुद्धात्मा के ध्यानमय शिवमार्ग सहज दिखावती॥
जिनके दरश कर अधम भी होवें पवित्र महान हैं।
उपदेश सुन तिर्यञ्च भी पावें सहज शुभ ज्ञान है॥ अनुबन्ध-प्रतिबन्धों रहित जिनका आहार विहार है॥ निज ॥

निज ध्यान में तिष्ठे हुए थे मुनि सुकौशल एक दिन।
क्रूर व्याघ्री ने बिदारा मूढ़ हो उनका सुतन ॥
नष्ट करके कर्मबंधन अन्तःकृत केवलि हुए।
त्रिलोक-पूजित परम निर्मल आत्म गुण शोभित हुए ॥ समभाव का लखकर सुफल भविजन विषमता त्यागिये। परभाव शून्य सु सहज ज्ञायकभाव नित आराधिये ॥
जहँ पुत्र को माता भखे, संसार को धिक्कार है॥ निज.॥

श्री कीर्तिधर मुनिराज ने व्याघ्री को सम्बोधन किया। जातिस्मरण उसको हुआ सन्यास उसने भी लिया ॥
तज पशु शरीर सु स्वर्ग पाया देख यह अद्भुत गति । दुष्पाप तज कर लो व्यवस्थित आत्मन् अपनी मति ॥ मिथ्यात्व दुःख का मूल है सुख मूल है निर्मोहता। पर्यायदृष्टि छोड़कर जो द्रव्यदृष्टि सु धारता ॥ वह अनुभवी ज्ञानी सु ध्यानी होय भव से पार है ॥ निज. ॥

निर्णय करो तत्त्वार्थ का श्रद्धान सम्यक् कीजिए।
स्वभाव अरु परभाव का विज्ञान सम्यक् कीजिए | परभावों से निवृत्त हो चारित्र सम्यक् धारिये।
आनन्द से आनन्दमय निज ब्रह्म रूप सम्हारिये ॥
पर की गुलामी से रहित स्वाधीन जीवन हो अहो। प्रभुतामयी आनन्दमयी आदर्श जीवन हो अहो ॥ सहजता से सरलता से करो यह स्वीकार है ॥ निज. ॥

हैं सर्व योग मिले तुम्हें कोई बहाना ना करो।
अब हान आलस ठान साहस आत्म संवेदन करो ॥
साथी सगा कोई नहीं दुःख में न आवे काम रे ।
है अकेला पूर्ण निज में सदा आतमराम रे ॥
निरपेक्ष हो निश्चिंत हो आराधते शुद्धात्मा ।
हों सर्व कर्मों से रहित निश्चय बनें परमात्मा ॥
स्वभावदृष्टि पूर्वक उनको नमन अविकार है॥ निज. ॥

~ब्र० रवींद्र जी ‘आत्मन’

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