श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार - पद्यानुवाद | shri rantakarand shravakachar

श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार - पद्यानुवाद
(दोहा )
बाह्यान्तर लक्ष्मी सहित, वर्धमान जिनराज।
‘ज्ञायक’ लोकालोक के, नमन उन्हें शतबार।।1।।
स्वर्ग मोक्ष का सुख मिले, बाधा रहित वचन।
दुःख न किंचित् मात्र हो, ऐसा कहूँगा धर्म।।2।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण, जिनवर कहिये धर्म।
यातैं जो विपरीत है, वे सब ही हैं कुधर्म ।।3।।
देव शास्त्र गुरु शरण गहे, सम्यक् हो श्रद्धान।
शास्त्रानुसार आचरण करे, सम्यग्दृष्टि जान ।।4।।
वीतराग सर्वज्ञता, हित उपदेशक जान।
निश्चय से गुरुवर कहे, उनको आप्त बखान।।5।।
भूखप्यास अरु जन्म मरण, आदि अठारह दोष।
जिनको ये नहीं होत हैं, सच्चे आप्त हैं होत।।6।।
परम इष्ट ज्योति विराग, विमल कृती व सार्व।
नादि मध्यान्त सर्वज्ञ, अष्ट नाम है आप्त।।7।।
ज्यों शिल्पी कर बजे मृदंग, कुछ भी न चाह करे।
त्यों हि राग रहित प्रभु, हित उपदेश खिरे ।।४।।
वीतराग सर्वज्ञ कथित, बाधा रहित है बैन।
सच्चा सब उपदेश है, जिनवाणी है ऐम।।9।।
विषयकषाय आरंभ अरु, परिग्रह रहित है जे।
ज्ञान ध्यान में रत रहे, सच्चे गुरु हैं वे।।10।।
जैसे आप्त आगम गुरु, उनका स्वरूप है जो।
वैसा ही श्रद्धान कर, नि:शंकित है वो ।।11।।
इन्द्रिय सुख वांछा नहीं, इन्द्रिय सुख तो हेय।
ऐसा जो श्रद्धान है, नि:कांक्षित है यह ।।12।।
वृती रोगी या मलिन देह, चाहे करे वमन ।
मन ग्लानि न ऊपजे, निर्विचिकित्सा अंग।।13।।
मिथ्यादेवागम गुरु, मिथ्यामार्ग है जो।
प्रमाण प्रशंसा न ऊचरे, अमूढ़दृष्टि है वो।।14।।
जो जिन ने आगम कहा, कोई लगावे दोष।
उसको जो निर्दोष करे, उपगूहन है वो।।15।।
सम्यग्दृष्टि धर्म से, चलायमान हो जाय।
धर्म में स्थिर करो, स्थितिकरण कहाय।।16।।
चार संघ जो हैं कहे, ज्ञानी धर्मी जान।
मिले परस्पर स्नेह हो, वात्सल्य अंग मान।।17।।
अज्ञानी जो जीव हैं, ताहि जिनुपदेश दे।
होगी धर्म प्रभावना, अंग प्रभावन है।।18।।
नि:शंकित अंजन हुआ, नि:कांक्षित अनन्तमती।
निर्विचिकित्सा उद्दायन, अमूढ दृष्टि रेवती।।19।।
उपगूहन जिनेन्द्र भक्त, स्थितिकरण वारिषेण।
प्रभावन वज्र कुमार है, विष्णु मुनि वात्सल्य।।
ये सब जो भी महापुरुष, सम्यक् के अष्टांग।
एक-एक में जो प्रसिद्ध, उनके हैं सब नाम।।20।।
ज्यों हीनाक्षर मंत्र से, मिटे न विष का कार्य।
त्यों हीनाङ्ग सम्यक्त्व से, मिटे न भव संताप ।।21।।
हिंसा नदी स्नान अरु, अग्नि हवन में धर्म।
लोक मूढ़ता है यही, जानो मिथ्या धर्म।।22।।
वर इच्छा की चाह से, जो पूजे कुदेव।
देव मुढ़ता उसे कहे, आगम में जिनदेव ।।23।।
हिंसा आरम्भ परिग्रह, सहित भ्रमे जो संत ।
पाखण्डी मार्ग चले, गुरु मूढ़ता वंत।।24।।
ज्ञान पूजा कुल जाति अरु, बल ऋद्धि तप रूप।
आठों मद से रहित जो, सम्यग्दृष्टि भूप।।25।।
बिन धर्मात्मा पुरुष के, न हो सकता धर्म।
अज्ञानी अपमान करे, होकर मद उन्मत्त।।26।।
अशुभ कर्म संवर हुआ, मुझको क्या है लाभ।
आस्रव भी यदि हो रहा, मुझको क्या है लाभ।।27।।
भस्म लगे अंगार को, कहते अग्नि मेव।
सम्यक्त्वी चाण्डाल हो, कहते उसको देव ।।28।।
कुत्ता पुण्य प्रभाव से, बन जाता है देव।
पाप प्रभाव अगर पडे, कुत्ता, बनता देव।।
त्यों हि धर्म प्रभाव से, प्राणी जन को अपार।
अहमिन्द्रों सी सम्पदा, मिलती अपरम्पार ।।29।।
भय आशा अरु लोभ से, कुगुरु कुदेव कुधर्म।
वन्दन जो भी न करे, सम्यग्दर्शनवन्त ।।30 ।।
सम्यग्ज्ञानचारित्र से, उत्तम सम्यग्दर्शन।
रत्नत्रय जग समुद्र में, तारे सम्यग्दर्श ।।31।।
जो अभाव में बीज के, वृक्ष उदय नहीं होय।।
त्यों हि सम्यग्दर्श विन, ज्ञान चारित न होय ।।32।।
मोह रहित गृहस्थ हो, मोह सहित है मुनीश।
उत्तम ऐसो गृहस्थ है, उत्तम नाहि मुनीष ।।33 ।।
तीन काल तिहुँ लोक में, कल्याणी सम्यक्त्व।
अकल्याणी जो कहा, वह है मिथ्या धर्म।।34।।

         **हरिगीत**

सहित सम्यग्दर्श है जो, नीच कुल में नाहिं हो।
नीच गति या अल्प आयु, दरिद्र अभद्र भी नाहिं हो।।35।।
ओज तेज सहित पराक्रम, वृद्धि यश सुख की रहे।
नायक सब मानुषों में, वे जीव सम्यक्द्रष्टि हैं।।36।।
अणिमा महिमा आदि आठों, गुण सहित जो जीव हैं।
उत्तम कहे सब देव से, वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं ।।37 ।।
स्वर्ग की कर आयु पूरण, मनुज गति में जन्म ले।
अधिपति छह खण्ड का, वह बने सम्यग्दर्श से।।38।।
जो भी है सम्यक सहित, गणधर भी उनको वंदते।
वे धर्म चक्री मनुज वा, तीर्थंकर रूप में जन्मते ।।39।।
जन्म मरणादि रहित वह, मुक्ति निराकुल लहे।
शरण सम्यग्दर्श जिसको, सिद्ध पद भी वो लहे ।।40।।
जिन भक्ति अनुरागी हो, वह दृष्टि सम्यग्धारी हो।
देवेन्द्र राजेन्द्र तीर्थंकर, बाद में निर्वाण हो।।41।।
वस्तु को परिपूर्ण जाने, अधिक हो न कम कही।
वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहे, गणधर श्रुत केवली।।42।।
महापुरुष, त्रेसठ शलाका, की कथा जिन शास्त्र में।
प्रथमानुयोग ग्रन्थ हैं वे, जाने सम्यक्ज्ञान में ।।43।।
लोकालोक विभागकाल अरु, सारे करणानुयोग को।
जानता सब रूप से वह, ज्ञान सम्यक्ज्ञान हो।।44।।
घर में वैरागी तथा मुनि आचरण का ज्ञान है
जो ग्रन्थ चरणानुयोग में है, जानता सुज्ञान है।।45।।
दीपक समान प्रकाशता जो, द्रव्य अरु सब तत्व को।
वह ग्रंथ द्रव्यानुयोग है, सब जानता सुज्ञान हो ।।46।।
नाश मिथ्यातम किया, अब प्रगट में सम्यक्त्व है।
वे साधु रागादि मिटाने, धारते चारित्र हैं।।47।।
बिना धन की चाह के नर, राज काज नहीं करे।
त्यों राग द्वेष अभाव में, जीव हिंसादिक भी न करे।।48।।
हिंसास्तेय असत्य मैथुन, परिग्रह यह पाप है।
विरक्त इनसे ज्ञानी है, उत्तम चारित्र धारी है।।49।।
सर्व परिग्रह रहित मुनि के, सकल चारित्र है कहा।
गृहस्थ सम्यग्ज्ञानी है, उनके विकल चारित कहा।।50।।
शिक्षा गुण अणुव्रत त्रिरूप, चारित कहे गृहस्थ के।
चर्तु त्रि पंच भेद है, क्रमशः: जिनागम में कहे ।।51।।
हिंसास्तेय असत्यमेथुन, परिग्रह पंच पाप है।
स्थूल रूप विरक्त इनसे, उसे है अणुव्रती कहें।।52।।
त्रियोगपूर्वक कृत कारित अनुमोदना संकल्प से।
त्रस जीव घात करे न गृहस्थ, स्थूल हिंसा विरक्त है।।53।।
बंधन छेदन भेदन, अन्नपान निरोध हैं।
अतिभार रोपण पाँच यह, अहिंसाणुव्रत अतिचार है।।54।।
स्थूल असत्य न बोलता, बुलवाता है न किसी से।
कष्टदायी सत्य भी न कहे, स्थूल झूठ का त्यागी है।।55।।
परिवादरहोभ्याख्यान पैशुन्य कूटलेखन्यासापहारिता।
सत्याणुव्रत के पंच ये अतिचार जिनवर ने कहे।।56।।
रखी पड़ी या भूली वस्तु को उठाता जो नहीं।
उठाकर न अन्य को दे, स्थल चोरी त्याग है।।57।।
चोर प्रयोग चोरार्थादान, विलोप सदृश सन्मिश्र।
हीनाधिक मानोन्मान पंच स्थूल स्तेय अतिचार है।।56।।
स्वयं जाए न भेजे अन्य को, परस्त्री के पास में ।
स्व स्त्री संतोषी है जो, ब्रह्मचर्याणुव्रत जिनवर कहे ।।59।।
अन्य विवाह करण अनंग, क्रीडा विटत्वविपुलतृषा।
इत्वरिकागमन पंच ये अतिचार ब्रह्मचर्य व्रत के ।।60।।
धन धान्यादिक परिग्रह की नहीं इच्छा अधिक है।
परिमाण परिग्रह में रखे, परिमित परिग्रह व्रत है।।61।।
अतिवाहन संग्रहलोभ विस्मय, अतिभारवहन जो करे।
परिग्रह परिमाण व्रत के, पांच ये अतिचार हैं।।62।।
अतिचार रहित अणुव्रत सहित वह देवगति में जन्मता।
अणिमादि ऋद्धि सहित दिव्य देह की है प्राप्तता ।।63।।
मातङ्ग धनदेव वारिषेण अरु नीली जय कुमार है।
जो पाँचों अणुव्रत में ही क्रमशः प्रसिद्ध पूज्य हुए हैं।।64।।
धनश्री सत्य घोष तापसी कोतवाल नवनीत ये।
पांचों पापों में क्रम से, प्रसिद्ध दुर्गति प्राप्त है।।65।।
मधुमद्यमांस त्यागी अरु, पंच अणुव्रत धारी है।
वहअष्ट मूलगुण धारी है, श्रुतकेवली गणधर कहे।।66।।
दिग्व्रत अनर्थदण्ड भोगोपभोगपरिमाण तीन ये।
अणुव्रत में गुण वृद्धि करे सो गुणव्रत गणधर कहे।।67।।
परिमाण दश दिशाओं में कर, उल्लंघन न करे जो।
पाप निवृत्ति में लगे, दिग्व्रत नामक गुणव्रती ।।68।।
सागर नदी पर्वत देश, योजनादि दिशाओं में ।
परिमाण कर न उल्लंघन, दिग्व्रत धारी जीव है।।69।।
धारी जो दिग्व्रत का वह पाप किंचित् न करे।
बस इसलिए अणुव्रत उसके महाव्रत में परिणमे ।।70।।
सकल नहीं संयम कषाय प्रत्याख्यान उदय है।
बस इसलिए अणुव्रती रहे, महाव्रत की है बस कल्पना।।71।।
कृत कारित अनुमोदना, त्रियोग पूर्वक हिंसादि।
पापों में न प्रवर्ते वे महाव्रत के धारी हैं ।।72।।
उर्ध्वातिपात अध:स्ताति क्रमतिर्यग्व्यतिक्रम है अरु ।
क्षेत्रवृद्धि विस्मरण दिग्व्रत पंच अतिचार है ।।73।।
मर्यादित दिशाओं में त्रियोग की न व्यर्थ ही।
प्रवृत्ति हो भगवन उसे, अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं ।।74।।
अपध्यान हिंसादानपापोपदेशदुःश्रुति अरु ।
प्रमादचर्या पंच अनर्थ दण्ड ये गणधर कहे।।75।।
तिर्यंच को दे क्लेश, अरु क्रय विक्रय उनका करे।
ऐसी प्रवृत्ति रूप हिंसोपदेश पापोपदेश है।।76।।
विक्रय करे किराए पे दे असि आदि हिंसा उपकरण।
छुरी आदि का दे दान हिंसा दान अनर्थदण्ड है।।77।।
द्वेष से या वैर से, हिंसा करे जो अन्य की।
या हिंसा का चिंतन करे, अपध्यान अनर्थदण्ड है।।78।।
आरम्भ साहस संग मद मिथ्यात्व अवधि रागद्वेष।
मदन रूपी शास्त्र श्रवण, दु:श्रूति अनर्थदण्ड है। ।।79।।
बिन प्रयोजन भूमि खोदे, अग्नि या जल छिड़कता।
वायु फूंके वनस्पति छेदन प्रमाद चर्या है।।80।
कंदर्प मौखर्य अरु, कौत्कुञ्च अति प्रसाधन।
असमीक्ष्याधिकरण पंच अतिचार अनर्थदण्ड है।।81।।
पंच इन्द्रिय विषय में, आसक्ति कम करना जिन्हें।
सीमा सीमित करे भोगोपभोग परिमाण व्रत है।।82।।
आए एक बार भोगने में, भोजनादि भोग है जो।
बार-बार ही भोगे इन्द्रिय, विषय वह उपभोग है।।83।।
जिनशरण को प्राप्त है, जो जीव सम्यग्दृष्टि है।
मद्य मांस अरु मधु का, उनके सदा परित्याग है।।84।।
प्रयोजन हो सिद्ध अल्प, बहुघात जीवों का करे।
ऐसे कन्दमूल सेवन त्याग वह भी व्रत है ।।85।।
देह को अनिष्ट है जो तथा सेवन योग्य ना।
अनुपसेव्य अनिष्टकारक त्याग वह भी व्रत कहा।।86।।
भोगोपभोग परिमाण व्रत के यम नियम दो भेद हैं।
देह पर्यन्त त्याग यम मर्यादा पूर्वक नियम है।।87।।
भोगोपभोग परिमाण व्रत में, नित्य ही कुछ नियम हो।
रस आदि व्यंजन त्याग एकासन आदि नियम हो।।88।।
एक घड़ी मुर्हत प्रहर दिन रात्रि पक्ष इक माह ऋतु।
आदि समय परिमाण करके त्यागना वह नियम है।।89।।
अतिलौल्य अनुप्रेक्षास्मृति तृष्णा अनुभव पाँच ये।
अतिचार भोगोपभोग परिमाण व्रत के है ये कहे।।90।।
देशावकाशिक प्रोषधोपवास सामायिक औ वैयावृत्त्य।
ये चार शिक्षाव्रत कहे, जिनदेव ने जिनवाणी में।।91।।
अणुव्रती के काल की, मर्यादा जो कि विशाल है।
नित्य किंचित न्यून कर, देशावकाशिक व्रत कहे।।92।।
गृह मोहल्ला ग्राम नदी वन क्षेत्र योजन सीमा में।
जो अपनी सीमा कम करे देशावकाशिक व्रती कहे।।93।।
देशावकाशिक है व्रती जो, चार छह दो माह अरु ।
इक वर्ष पक्ष नक्षत्र में भी, काल मर्यादित करे।।94।।
देशावकाशिक व्रती को, परिमाण क्षेत्र के बाह्य में।
हिंसादि का सब त्याग हो तो महाव्रत की सिद्धि हो।।95।।
शब्द प्रेषण आनयनरूपाभिव्यक्ति और पुद्गल-
क्षेप पंच अतिचार ये देशावकाशिक व्रत कहे।।96।।
त्यागी है सर्वत्र जो, हिंसादि का त्रियोग से।
सामायिक उसके कहा ऋषिवर गणधर देव ने।।97।।
केश मुष्टि वस्त्र आसन बांधकर एकान्त में।
मर्यादापूर्वक शुद्ध आतम ध्यान हो सामायिक में।।98।।
विक्षेप विरहित थान हो, वन बाग गृह अरु चैत्य में।
एकांत में शुद्धात्म में, परिचय वहाँ सामायिक हो।।99।।
काय क्रिया मन तथा विकल्प से भी रहित हो।
उपवास आदिक व्रतों में, सामायिक करने बैठिये।।100।।
अहिंसादिव्रत की पूर्णता का कारण है सामायिक।
जो पुरुष नियमित आत्म से परिचय करे एकाग्र हो।।101।।
सामायिक के काल में गृहस्थ परिग्रह रहित है।
उपसर्ग वस्त्र सहित मुनि के सम ही उनका भाव है।।102।।
सामायिक करे गृहस्थ तो योग चंचल न करे।
शीतोष्णदंशमशकादि जीवाजीव कृत उपसर्ग सहे।।103।।
अनात्मा अनित्य अशरण अशुभ यह संसार है।
स्व भूल से में भ्रम रहा अनादि से संसार में ।।104।।
मन वचन काय दु:प्राणिधान अनादर अरु अस्मरण।
यह पाँच सामायिक अतिचार जिन कहे निजवचन में।।105।।
अष्टमी अरु चतुर्दशी या रात्रि में जिनपर्व में।
आहार चारों प्रकार का हो त्याग प्रोषधोपवास में।।106।।
उपवास में हिंसादि व आरम्भ आदि न करे ।
देह से सजना तथा गृह कार्य को भी छोड़ दे।।107 ।।
उपवास में आलस न हो, बस ज्ञान ध्यान ही करे।
रुचि पूर्वक धर्म का श्रवण वाचन भी करे ।।108 ।।
अशन खाद्य स्वाद्य पान यह चार कवलाहार है।
त्याग इनका करे जब उपवास होता जीव के ।।
पश्चात् पूर्व उपवास के दिन भोज करे इक बार ही।
सोलह प्रहर के पूर्व भोजारंभ से भी त्याग हो।।109।।
अदृष्ट ग्रहण विसर्ग अन्तर अनादर अरु अस्मरण।
टालना है पाँच ये अतिचार हैं उपवास के।।110।।
दान वैयावृत्य धर्म अरु तप ही जिनका धन कहा।
अनपेक्षितोपचार की ही क्रिया शिक्षाव्रत में है।।111।।
संयमी की अनेकों आपत्तियों को दूर कर।
चरण मर्दन तथा गुण अनुराग वैयावृत्य है।।112।।
सप्त गुण से सहित नवधा भक्ति से आहार दे।
आरम्भ विरहित ज्ञानी मुनि को उसे आहार दान है ।।113।।
ज्यों देह के मल रुधिर का प्रक्षाल होता नीर से।
त्यों कर्म मल प्रक्षाल हो मुनि पूजा दान सम्मान से।।114।।
सम्यग्धारी तप निधानी देह से निर्मम जिन्हें ।
वैभव तथा सम्यक्त्व हो भोगभूमि में उत्पन्न हो।।115।।
सुपात्र को दे दान जो मिथ्यात्व में भी हो अगर।
वैभव तथा सम्यक्त्व हो भोगभूमि में उत्पन्न हो।।116।।
आहार औषध उपकरण आवास चारों दान से।
हो वैयावृत्य चार प्रकार चतुरस्त्र ज्ञानी ने कहा।।117।।
आहार औषध अभय शास्त्र चारों दानों से क्रमश: ।
श्रीषेण वृषभ सेना शूकर कौण्डेश प्रसिद्ध है।।118 ।।
देवाधिदेव अरहंत के चरणों की पूजा नित्य कर।
कामादि दुःख को नष्ट कर मनवांछित फल को प्राप्त कर।।119।।
राजगृह के नगर में जिनपूजन के भाव में।
हो मस्त इक मेंढ़क मरा तो स्वर्ग में वह देव है।।120।।
अनादर अस्मरण मत्सरत्व हरित निधान पिधान।
ये पाँच अतिचार दान के जो टालते वे भव्य है।।121।।
न इलाज हो यदि रोग का दुर्भिक्ष हो उपसर्ग हो।
तब धर्म रक्षा के लिए देह त्याग वह सल्लेखना।।122।।
अन्त क्रिया से यदि संन्यासी व्रत से रहित हो।
तो सारा तप ही विफल सो सल्लेखना ही योग्य है।।123।।
बैर संग स्नेह परिग्रह त्याग मन को शुद्ध कर।
सबको क्षमा सबसे क्षमा सल्लेखना के पूर्व ले।।124।।
अपराध यदि कृत-कारित अरु अनुमोदना से भी किया।
तो मरण पर्यन्त महाव्रत लो वीतरागी गुरु से।।125।।
संन्यास में भय, शोक आदिक कायरपन छोड़कर।
आत्म सत्त्व प्रकाश ज्ञानामृत से मन को प्रसन्न कर।।126।।
आहार छोड़ दूध पी फिर दूध छोड़ छाछ ले।
फिर छाछ तज कर गर्म पानी ले यदि सल्लेखना।।127।।
फिर गर्म जल भी छोड़कर उपवास दो करना अरु।
नवकार मंत्र स्मरण पूर्वक देह त्याग कीजिए।।128।।
जीवित मरणाशंस भय अरू मित्र स्मृति निदान ।
ये पंच है अतिचार तज सल्लेखना के जिन कहे।।129।।
सल्लेखना से मरण हो, वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि हो।
धर्माचरण से सहित बह, निर्वाण सुख को प्राप्त है।।130।।
जन्म रोग जरा मरण दु:ख शोक भय संयोग से।
रहित केवल शुद्ध नित्य सुखी वह निःश्रेयस है।।131।।
स्वास्थ्य शक्ति शुद्धि अरु सहित अनन्त चतुष्क है।
हे परम वीतरागी वे निर्वाण पद को प्राप्त हैं।।132।।
लीन है निज आत्म में जो अनन्तानन्त काल से।
उन सिद्ध प्रभु को नहीं आता, विकार कभी निजआत्म में।।133।।
निःश्रेयस है जो जीव वे तो कर्म मल से रहित हैं।
कांति छवि के धारी वे निर्वाण लक्ष्मी को वरे।।134।।
इंन्द्रादि पद भी प्राप्त हो, सम्यक धर्म समाधि से।
पूजा धन ऐश्वर्य बल सम्यक् धर्म से प्राप्त हो ।।135।।
ग्यारह कहे स्थान श्रावक धर्म के जिनदेव ने।
पूर्व के स्थान के गुण सहित क्रम बढ़ते रहे।।136।।
संसारी हैं जो दोष विरहित विषय भोग विरक्त हो।
परमेष्ठी अरु तत्त्व की श्रद्धा उसे श्रावक कहो।।137।।
माया मिथ्या निदान शल्य अतिचार से भी रहित हो।
बारह व्रतों का धारी श्रावक व्रतियों में वृती हो।।138।।
नवकार मंत्र के पूर्व में अरु अन्त में कायोत्सर्ग।
परिग्रह रहित दिक् चार में प्रणाम तीन आवर्त कर।
देव वन्दन पूर्व में दो बार शीश नवाइये।
त्रि बार दिन में नित्य ही कर वन्दना सामायिक हो।।139।।
चतुर्दश अरु अष्टमी नीरस आहार व छाछ लो।
शुभध्यान में उपवास हो तो प्रोषधोपवास जान लो।।140।।
कंदमूल अरु बीज का भक्षण करे न निरर्गल।
श्रावक सचित्तविरत नामक पाँचवाँ पद जानना।।141।।
बनाया हो रात्रि में वह भोज या चारों आहार।
त्याग रात्रि में करें तो रात्रि भुक्ति विरत है।।142।।
दूर्गन्धयुत मल पिण्ड जाने इस अशुचि देह को।
तब काम भाव विरत हो तो ब्रह्मचारी जीव है।।143।।
हिंसा करण है कृषि वाणिज्य असि आदि कर्म।
सब त्याग हो जिस जीव के आरम्भ निवृत्त श्रावक है ।।144।।
देहादि से ममत्व न रागादि से भी रहित जो।
संतोषधारी परिग्रह का त्याग परिग्रह त्याग है।।145 ।।
आरम्भ आदि बाह्य किया में न कर अनुमोदना।
अनुमति भी देय न अनुमति व्रत का धारी हो।।146।।
सब परिग्रह त्याग कर बस खण्ड ही वस्त्र रखो।
मुनि सम मुनि के संग रहे उत्कृष्ट श्रावक जीव वे।।147।।
पाप वैरी को तजे धारण करे जो धर्म को।
निज शुद्ध आत्म स्वरूप जाने उसका ही कल्याण हो।।148।।
जब आत्म को कलंक विरहित रत्नकरण्ड प्राप्त हो।
सब अर्थ उसके सिद्ध हो ज्यों स्त्री को हो पति से।।149।।

               **रोला**

कामिनी से सुखी हुआ जो कामी पुरुष है।
जननी जो पालन करती है अपने पुत्र का।।
शीलवती करती है जैसे कुल पवित्र त्यों।
सम्यग्दर्शन सुख पवित्रता मुझे प्रदान हो।।150।।

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सम्भव जी शास्त्री ने ही किया है।

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