हे मुनिसुव्रत प्रभु हो सुव्रत, अब यही भावना जागी है |
अविरति लगती है दुखदाई, मिथ्यामति मेरी भागी है || १ ||
परिग्रह बोझा सम लगता है, और भोग भुजंग समान लगे |
आनंद - कंद अभिराम परम, ज्ञायक में ही उपयोग पगे || २ ||
है धन्य - धन्य निर्ग्रन्थ दशा, आनंदमय प्रचुर स्वसंवेदन |
विषयों की आशा भी न रही, आरम्भ परिग्रह बिन जीवन || ३ ||
प्रभु सम निज में तृप्त रहूँ, रागादि भाव पर जय पाऊँ |
हे निज प्रभुता दर्शक प्रभुवर, चरणों में बलिहारी जाऊँ || ४ ||
(सोरठा)
मुनिसुव्रत जिनराज, मुनिव्रत धारूँ चाव सों |
अपने हित के काज, धन्य घड़ी कब आयेगी || ५ ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’