(वीरछन्द)
विषयाशा आरम्भ रहित जो, ज्ञान ध्यान तप लीन रहें।
सकल परिग्रह शून्य मुनीश्वर, सहज सदा स्वाधीन रहें।
प्रचुर स्व-संवेदनमय परिणति, रत्नत्रय अविकारी है।
महा हर्ष से उनको पूजें, नित प्रति धोक हमारी है।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वराः ! अत्र अवतर अवतर। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
(अवतार)
मुनिमन सम समता नीर, निज में ही पाया।
नाशें जन्मादिक दोष, शाश्वत पद भाया ।।
गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निग्रंथ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो जन्ममरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा।
चन्दन सम धर्म सुगन्ध, जग में फैलावें।
बैरी भी बैर विसारि, चरणन सिर नावें ।।गुण मूल.।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्व मुनिवरेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।
लख तुष समान तन भिन्न, अक्षय शुद्धातम।
आराधे निर्मम होय, कारण परमातम ।।गुण मूल.॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा।
निष्कम्प मेरु सम चित्त, काम विकार न हो।
लहुँ परम शील निर्दोष, गुरु आदर्श रहो।।गुण मूल.॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
निर्दोष सरस आहार, माँहि उदास रहें।
हैं निजानन्द में तृप्त, हम यह वृत्ति लहें।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि. स्वाहा।
निर्मल निज ज्ञायक भाव, दृष्टि माँहिं रहे।
कैसे उपजावे मोह, ज्ञान प्रकाश जगे।गुण मूल.॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
तज आर्त रौद्र दुर्ध्यान, आतम ध्यान धरें।
उनको पूजें हर्षाय, कर्म-कलंक हरें।गुण मूल.॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अष्टकर्मदहनाय __ धूपं नि. स्वाहा।
निश्चल निजपद में लीन, मुनि नहिं भरमावें।
निस्पृह निर्वांछक होय, मुक्ति फल पावें ।।गुण मूल.।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
चक्री चरणन शिर नाय, महिमा प्रगट करें।
लेकर बहुमूल्य सु अर्घ्य, हम भी भक्ति करें ।।गुण मूल. ।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं नि. स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
कामादिक रिपु जीतकर, रहें सदा निर्द्वन्द ।
तिनके गुण चिन्तत कटें, सहज कर्म के फन्द ।।
(चौपाई)
मुनिगुण गावत चित हुलसाय, जनम-जनम के क्लेश नशाय ।
शुद्ध उपयोग धर्म अवधार, होय विरागी परिग्रह डार ।।
तीन कषाय चौकड़ी नाश, निग्रंथ रूप सु कियो प्रकाश ।
अन्तर आतम अनुभव लीन, पाप परिणति हुई प्रक्षीण ।।
पंच महाव्रत सोहें सार, पंच समिति निज-पर हितकार।
त्रय गुप्ति हैं मंगलकार, संयम पाले बिन अतिचार ।।
पंचेन्द्रिय अरु मन वश करे, षट् आवश्यक पालें खरे।
नग्नरूप स्नान सु त्याग, केशलौच करते तज राग।
एकबार लें खड़े अहार, तजें दन्त धोवन अघकार ।
भूमि माँहिं कछु शयन सु करें, निद्रा में भी जाग्रत रहें।
द्वादश तप दश धर्म सम्हार, निज स्वरूप साधे अविकार ।
नहीं भ्रमावे निज उपयोग, धारें निश्चल आतम योग।।
क्रोध नहीं उपसर्गों माँहि, मान न चक्री शीश नवाहिं ।
माया शून्य सरल परिणाम, निर्लोभी वृत्ति निष्काम ।।
सबके उपकारी वर वीर, आपद माँहिं बंधावें धीर ।
आत्मधर्म का दें उपदेश, नाशें सर्व जगत के क्लेश ।।
जग की नश्वरता दर्शाय, भेदज्ञान की कला बताय ।
ज्ञायक की महिमा दिखलाय, भव बन्धन से लेंय छुड़ाय ।।
परम जितेन्द्रिय मंगल रूप, लोकोत्तम है साधु स्वरूप।
अनन्य शरण भव्यों को आप, मेटें चाह दाह भव ताप ।।
धन्य-धन्य वनवासी सन्त, सहज दिखावें भव का अन्त ।
अनियतवासी सहज विहार, चन्द्र चाँदनी सम अविकार ।।
रखें नहीं जग से सम्बन्ध, करें नहीं कोई अनुबन्ध ।।
आतम रूप लखें निर्बन्ध, नशें सहज कर्मों के बन्ध ।
मुनिवर सम मुनिवर ही जान, वचनातीत स्वरूप महान ।
ज्ञान माँहिं मुनिरूप निहार, करें वन्दना मंगलकार ।।
पाऊँ उनका ही सत्संग, ध्याऊँ अपना रूप असंग।
यही भावना उर में धार, निश्चय ही होवें भवपार ।।
ॐ ह्रीं श्रीत्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालाऽयं नि. स्वाहा।
अहो! सदा हृदय बसें, परम गुरू निग्रंथ ।
जिनके चरण प्रसाद से, भव्य लहें शिवपंथ ।।
॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ॥
Artist - ब्र० श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: श्री जिनेन्द्र आराधना संग्रह