श्री मल्लिनाथ जिनपूजन
(छन्द-अडिल्ल)
मल्लिनाथ जिनराज, परम आदर्श हो
भविजन को सुखदाय, आपका दर्श हो ।
देव आप सम ब्रह्मचर्य वर्ते सदा ।
पूजूँ तुम्हें जिनेश, हर्ष उर में महा ।
(छन्द-दोहा)
परम जितेन्द्रिय जिन हुए, काम सुभट को जीत ।
स्वाभाविक आनंद की, जागी सहज प्रतीति ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(छन्द-अवतार)
जल जाना प्रभु निस्सार, चरणन माँहिं तजूँ।
तुमसम ही हे जिनराय, अव्यय भाव सजूँ ।।
हे बालयती तीर्थेश, नित प्रति शिर नाऊँ ।
हे मल्लिनाथ जिनराज, शाश्वत पद पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रभु चन्दनादि निस्सार, चरणन माँहिं तजूँ ।
तुम सम ही हे जिनराज, शीतल शांत रहूँ। हे बालयती ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
क्षत् रूप विभाव असार, चरणन माँहिं तजूँ।
तुम सम ही हे जिनराज, अक्षय सौख्य लहूँ ॥
हे बालयती तीर्थेश, नित प्रति शिर नाऊँ ।
हे मल्लिनाथ जिनराज, शाश्वत पद पाऊँ ।।
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रभु काम भोग निस्सार, चरणन मोहिं तजूँ।
तुम सम ही हे जिनराज, ब्रह्म विलास भजूँ । हे बालयती… ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
निस्सार बाह्य नैवेद्य चरणन माँहि तजूँ।
तुम सम ही हे जिनराज, तृप्त सदैव रहूँ ।। हे बालयती… ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़ दीप प्रभु निस्सार, चरणन माँहिं तजूँ ।
तुम सम ही हे जिनराज, नित निर्मोह रहूँ ।। हे बालयती…!
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।
सुखरूप नहीं जड़ धूप, चरणन मौर्हि तजूँ।
तुम सम ही हे जिनराज, नित निष्कर्म रहूँ। हे बालयती…॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
लौकिक फल सर्व असार, चरणन माँहिं तजूँ।
तुम सम ही हे जिनराज मुक्त सदैव रहूँ। हे बालयती… ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
प्रभु बाह्य विभव निस्सार, चरणन माँहि तजूँ।
तुम सम ही है जिनराज, विभव अनर्घ्य लहूँ। हे बालयती…॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक अर्घ्य
(सोरठा)
करे जगत कल्याण, गर्भागम भी आपका ।
हो भवभय से त्राण, भाव सहित पूजूँ प्रभो ॥
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपदायां गर्भमंगलमण्डिताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।
जन्म समय इन्द्रादि, कीना नह्वन सुमेरु पर
जन्मोत्सव कर याद, आनन्द धरि पूजूँ प्रभो ॥
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
ब्याह समय वैराग, धारि हृदय दीक्षा लही ।
निज स्वरूप में पाग, कर्म नाश उद्यम किया ।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां तपोमंगलमण्डिताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
केवलज्ञान सुपाय, धर्म तीर्थ प्रगटाइयो ।
निश्चय शिव सुखदाय, पूजूं अति उल्लास सौं ।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
सर्व कर्म मल जारि, अविनाशी शिवपद लह्यो ।
मुक्त स्वरूप निहार, प्रभु निश्चय पूजा करूँ |
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लपंचम्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
जयमाला जिनराज की, गाऊँ मंगल रूप ।
कर स्मरण चरित्र प्रभु ध्याऊँ शुद्ध चिद्रूप ॥
(आँचलीबद्ध चौपाई)
जय-जय मल्लिनाथ भगवान, जिनमुद्रा लखकर अम्लान ।
आनन्द मेरे उर न समाय, तन का रोम-रोम पुलकाय ।।
महिमा प्रभु की कही न जाय, प्रभु भक्ति बाचाल कराय
परमब्रह्म परमात्मस्वरूप, तुम गुण तिहुँ जगमाँहिं अनूप ॥
जम्बूद्वीप विदेह मँझार, नृपति वैश्रवण चित्त उदार ।
मुनि सुगुप्ति के दर्शन किए, रत्नत्रय व्रत सहजहि लिए ।
इक दिन वन विहार के काल देखावट का वृक्ष विशाल ।
किन्तु लौटते समय विनष्ट, देख हुआ था चित्त विरक्त ॥
दीक्षा ले भायी सुखकार, भावना सोलह कारण सार ।
किया प्रकृति तीर्थंकर बंध कर समाधि हुए अहमिन्द्र ॥
मिथिला नगरी राजा कुम्भ, प्रजावती रानी अतिरम्य ।
अपराजित विमान तें सार, आये ताके गर्भ मंझार।
नाना उत्सव देव सु किये, धन्य घड़ी प्रभु जन्मत भये ।
हुआ सुमेरू पर अभिषेक, दर्शन से प्रभु जगे विवेक ॥
अद्भुत क्रीड़ाएं सुखकार करते बढ़ते भये कुमार ।
शादी को जब चली बरात, लख शोभा प्रभु हुए उदास ॥
हुआ जाति स्मरण सु ज्ञान, दीक्षा हेतु किया प्रस्थान |
धिक् धिक् कह त्यागे जड़भोग, आराधा निजरूप मनोग |
छह दिन में लहि केवलज्ञान, धर्मतीर्थ प्रगटा अम्लान
समवशरण में शोभें आप, भविजन के नाशें संताप |
एक मास पहले जिनराज, सम्बल कूट सु आय विराज ।
करके योग निरोध महान, पायो अविचल पद निर्वाण |
भाव सहित पूजत जिनदेव, तत्त्वज्ञान जागे स्वयमेव ।
विचरूँ मैं भी प्रभु के पंथ, पाऊँ दशा परम निर्ग्रंथ
(छन्द-घत्ता)
जय मल्लि जिनेन्द्रं, आनन्द कन्दं, चिदानन्दमय चित्त धरूँ ।
तज जग जंजालं, सुगुण विशालं, प्रभु समान ही प्रगट करूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा)
प्रभु पूजा सुखकार, हर्षित हो नित प्रति करूँ।
पाऊँ निज पद सार, अन्य न कोई कामना ।
॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥
रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह