श्री कुन्थुनाथ जिनपूजन । Shri Kunthunath Bhagwan Puja

 श्री कुन्थुनाथ जिनपूजन

                (दोहा)

कामदेव होकर प्रभो! किया काम निर्मूल ।
चक्रवर्तीपद सम्पदा, समझी तुमने धूल ॥
निर्ग्रन्थ पद आराधकर, धर्म तीर्थ प्रगटाय ।
हुए मुक्त श्री कुन्थु प्रभु, पूजूं प्रीति बढाय ॥ ||

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्
ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठःठः
ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्

                 वीरछंद 

अन्तर साम्यभाव धारण कर, जल जिनचरणों में लाऊँ ।
जन्म- जरा मृत दोष नाशने, अविनाशी निजपद ध्याऊँ ।।
कुन्थुनाथ की पूजा करते, हृदय हर्षित होता है।
भक्तिभाव से प्रभु गुण गाते, आनन्द विलसित होता है ।

ॐ ह्रीं श्री कुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा

सहज भाव से शान्त भाव से, चन्दन नाथ चढ़ाता हूँ।
क्रोधादिक संताप मेटने आत्म भावना भाता हूँ। कुन्थुनाथ… |

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।

निर्मल अक्षत जिनवर सन्मुख, सविनय आज चढ़ाता हूँ।
क्षत भावों से उदासीन हो, अक्षय पद को ध्याता हूँ। कुन्थुनाथ…॥

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा

तुम्हें नाथ निष्काम निरखकर, प्रासुक पुष्प चढ़ाता हूँ ।
कामभाव को निष्फल करने, ब्रह्म भावना भाता हूँ। कुन्थुनाथ…॥

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा

देव ! स्वयं में तृप्त तुम्हें लख, यह नैवेद्य चढ़ाता हूँ।
क्षुधा वेदना हरने को, परिपूर्ण भावना भाता हूँ ॥ कुन्थुनाथ…॥

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा

लोकालोक प्रकाशक हो फिर भी दीप चढ़ाता हूँ।
प्रभु मोह अंधेरा दूर भगाने, ज्ञान भावना भाता हूँ ।
कुन्थुनाथ की पूजा करते, हृदय हर्षित होता है।
भक्तिभाव से प्रभु गुण गाते, आनन्द विलसित होता है ॥

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा

धन्य प्रभो ! निष्कर्म अवस्था, मेरे मन को भाई है।
वैभाविक दुष्कर्म जलाने, ध्यान अग्नि प्रगटाई है। कुन्धुनाथ…।।

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा

तुम जैसा अविनाशी फल, पाने को चित्त ललचाया है।
प्रासुकफल ले भक्तहृदय प्रभु चरणशरण में आया है। कुन्थुनाथ… |

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

प्रभु अनर्घ्य वैभव लख, मेरा रोम-रोम पुलकाया है।
ऐसा पद प्रगटाने स्वामी, सविनय अर्घ्य चढ़ाया है कुन्धुनाथ…।।

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा

             पंचकल्याणक अर्घ्य

                   (वीरछन्द)

तजि विमान सर्वार्थसिद्धि प्रभु, गर्भ विषै आये सुखकार ।
श्रावण कृष्णा दशमी के दिन, पूजूँ जिनवर मंगलकार ।।

ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णदशम्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि.

एकम सुदि वैशाख सु पावन, हुई बधाई मंगलकार ।
अन्तिम जन्म हुआ हे स्वामी, पूजें हरि करि उत्सव सार ।।

ॐ ह्रीं वैशाख शुक्लप्रतिपदायां जन्म मंगलमण्डिताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा

नगरी की शोभा को लखते, जागा उर वैराग्य महान ।
धनि एकम वैशाख सुदी को, पद निर्ग्रन्थ लिया अम्लान ।।

ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमण्डिताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा

केवल पायो चैत सुदी तृतीया को घातिकर्म चकचूर ।
अद्भुत समवशरण की शोभा, धर्म प्रभाव हुआ भरपूर ।।

ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल तृतीयायां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

टोंक ज्ञानधर से शिव पायो, सुदि एकम वैशाख दिना ।
हरिनिर्वाण महोत्सव कीनो, पूजूं मन बच काय बिना ॥

ॐ ह्रीं वैशाख शुक्लप्रतिपदायां मोक्षमंगलमण्डिताय श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

              जयमाला 

               (दोहा)

परम अहिंसा धर्म का दिया सत्य उपदेश ।
निजानन्द में मग्न हो गाऊँ सुयश जिनेश ॥

(तर्ज- दिन रात मेरे स्वामी…)

आया शरण तुम्हारी, हे कुन्थुनाथ जिनवर |
आतम निधि सुपाऊँ, पुरुषार्थ जागे प्रभुवर टेक ॥ ॥
जब से स्वरूप देखा, नहीं और कुछ सुहावे ।
ज्यों मीन जल बिना त्यों, मम चित्त छटपटावे ॥
निजपद की भावना है, तुम सम ही होऊँ सत्वर । आतम ।।
प्रभु चक्रवर्ती पद को तृण के समान छोड़ा।
होकर परम जितेन्द्रिय विषयों से मुख को मोड़ा
भव जाल से विरत हो, हुए सहज दिगम्बर। आतम ।।
धनि धर्म मित्र श्रावक, आहार प्रथम दीना
निज आत्म भावना से मुक्ती का मार्ग लीना ॥
सुर हर्ष प्रगट कीना, पंचाश्चर्य प्रगट कर ॥ आतम. ।।
एकाग्र हुए स्वामी, निज भाव थे निहारे।
फिर क्षपक श्रेणि चढ़कर, घाती करम संहारे ॥
प्रगटा अनंत चतुष्टय हुए अरहंत सुखकर। आतम ।
दश जन्म के थे अतिशय, कैवल्य के हुए दश ।
देवों ने कीने चौदह थे प्रातिहार्य भी अठ ॥
धनपति ने भक्ति कीनी विभु समवशरण रचकर ।। आतम. ।।
प्रभु दिव्य ध्वनि के द्वारा, सन्मार्ग था बताया।
तत्वों का मार्ग सुनकर, भव्यों ने बोध पाया ॥
जिनमार्ग पर चलूँ मैं, निर्भय निःशंक होकर ।। आतम. ।।
अनुपम है प्रभुता प्रभु की, अद्भुत है महिमा प्रभु की।
वचनों से कैसे गावें, हम स्तुति सु प्रभु की ॥
हो ज्ञान में प्रतिष्ठित बस ज्ञान ही जिनेश्वर । आतम. ॥
चिन्मूर्ति हो विराजे, ज्यों मुक्ति में हे स्वामी ।
ध्रुव अचल ऋद्धि पाई, विश्वेश त्रिजग नामी ॥
सो भावना मैं भाऊँ, चरणों में शीश धरकर ।। आतम. ॥

             (छन्द-घत्ता )

प्रभु के गुण गावें, मुनिजन ध्यावें, शुद्धातम में लीन भये ।
रागादि विनाशे, ज्ञान प्रकाशे, कर्म महारिपु सहज जये ॥

ॐ ह्रीं श्री कुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

          (दोहा)

पूजा कुन्थु जिनेश की, नित नव मंगलकार ।
जग प्रपंच से काढ़ि कै, रत्नत्रय दातार ।

॥ पुष्पांजलि क्षिपामि ॥

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह