श्री कुन्दकुन्द वैराग्य
जिनशासन के स्तम्भ श्री कुन्दकुन्द आचार्य ।
हो जैनधर्म के गौरव श्री कुन्दकुन्द आचार्य ॥ १ ॥
जलते जंगल में ग्वाले ने एक वृक्ष देखा था।
जो नहीं जला था हरा खड़ा, कौतूहल जागा था ॥२॥
जब गया वृक्ष की कोटर में, जिनआगम पाया था।
वह पढ़ा लिखा तो नहीं, किन्तु मन में हरषाया था ॥ ३ ॥
लाकर श्रेष्ठी गृह में किया, उसने विराजमान ।
पूजा करे वंदन करे हृदय में धरि बहुमान ॥ ४ ॥
इकदिन श्रेष्ठी के घर में मुनि का आहार था हुआ।
वह आगम भक्ति से ग्वाले ने भेंट था किया ॥ ५ ॥
श्रेष्ठी के घर ही जन्म लिया उस ग्वाले ने मरकर ।
बचपन से ही तत्त्वज्ञान के संस्कार थे प्रखर ॥६॥
हुए थे ग्यारह वर्ष के वैराग्य उमड़ाया।
मुनिदीक्षा लेने का हृदय में भाव था आया ॥७॥
विह्वल माता-पिता बोले निज मोह की भाषा ।
हे वत्स! तुमसे ही लगी इस जीवन की आशा ॥ ८ ॥
खेलो-कूदो अरु पढ़ो-लिखो आनन्द मनाओ ।
है कमी नहीं कुछ घर में बेटा ब्याह रचाओ ॥९॥
जिनवर की पूजा गुरुओं की उपासना करो।
स्वाध्याय संयम दान में प्रमाद ना करो ॥१० ॥
घर में रहकर ही धर्म की आराधना करना।
मुनिधर्म अति उत्कृष्ट है तुम बाद में धरना ॥११॥
बोले कुन्दकुन्द हे पिताजी मोह को तोड़ो।
है कौन किसका पुत्र क्यों मिथ्या नाता जोड़ो? ॥१२॥
सब शुद्ध-बुद्ध चैतन्यमय भगवान आत्मा।
परभावों से है शून्य ध्रुव कारण परमात्मा ॥ १३ ॥
अपने को आप भूल भव-भव में भरमाया।
सौभाग्य आत्माराधन का अब भाव जगाया ॥१४॥
रोको मत, अनुमोदन करके उत्साह बढ़ाओ।
खेलूँगा मुक्ति मार्ग में आशीष बरसाओ ॥१५॥
जानूँ नित जाननहार निज आनन्द वेदूँगा।
दुःखों के कारण मोह को निश्चय ही छेदूँगा ॥१६॥
खल टूक सम पंचेन्द्रियों के भोग हैं निस्सार
सुख की तो मात्र कल्पना खुलता नरकों का द्वार ॥१७॥
तुम ही कहो हे तात! इनमें सुख क्या पाया?
वैराग्य के पावन अवसर पर क्या ये फरमाया? । १८ ॥
भोगों में तृप्ति ढूँढना अज्ञान दुःखदाई |
बाँसों की छाया लेकर किसने धूप बचाई ? । १९ ॥
भव-भव में कितने ब्याह कर परिवार बसाए।
था मरा उन्हीं की ममता में पर काम नहीं आए ॥ २० ॥
नहीं भूल को दोहराऊँगा मैं अब इस जन्म में ।
निज ज्ञायक प्रभु आराधूंगा सचमुच आनन्द में ॥ २१ ॥
कष्टों का भय दिखाकर अब नहीं मुझको अजमाओ।
मैं आराधन से नहीं चिगूँ विश्वास उर लाओ ॥ २२ ।
चैतन्य का बल है मुझे, समता है सहचरी।
आनन्दित होओ तात् आई है मंगल घड़ी ॥ २३ ॥
नहीं मुझको बालक देखो मैं हूँ अनादिनिधन ।
प्रभु स्वयं सिद्ध परमात्मा सुखमय विज्ञानघन ॥ २४ ॥
हूँ सहज चतुष्टय से सनाथ नाथ मुक्ति का।
निर्ग्रन्थ हो निर्द्वन्द्व पाऊँ राज्य मुक्ति का ॥ २५ ॥
ज्ञायक हूँ ज्ञायक ही रहूँ वाँछा नहीं कुछ भी।
आवेश नहीं यह होश है संशय नहीं कुछ भी ॥ २६ ॥
होकर जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी आत्मरस पियूँ ।
जग का झूठा घर वैभव तज निज घर में ही रहूँ ॥ २७ ॥
माता-पिता संतुष्ट हुए देखकर दृढ़ता।
आनन्दित होकर बोले धारो वत्स जिनदीक्षा ॥ २८ ॥
मंगलमय होवे मार्ग जाओ निश्चय शिव पाओ।
जिनधर्म की पावन पताका जग में लहराओ ॥ २९ ॥
धनि धनि है ज्ञानमय अहो वैराग्य तुम्हारा ।
जयवन्त वर्ते जिसके सन्मुख मोह है हारा ॥ ३० ॥
जग से उदास प्रमुदित कुन्दकुन्द चल दिए।
निर्मोही हो धारे क्षमा तब वन को चल दिए ॥ ३१ ॥
गुरुवर की साक्षी में धारा मुनिधर्म अविकारी।
जो प्रचुर स्वसंवेदनमय है अनुपम मंगलकारी ॥ ३२ ॥
जहँ तीन चौकड़ी मिटी, रही नहीं विषयों कीआशा।
आरम्भ परिग्रह छूटा ज्ञान ध्यान प्रकाशा ॥ ३३ ॥
करते हुए आराधना जीवन सफल किया।
रचकर परमागम भव्यों का उपकार बहु किया ॥ ३४ ॥
गुरु के प्रसाद पाया हमने तत्त्व अविकारी ।
कर स्वानुभूति से प्रमाण, होवें शिवचारी ॥ ३५ ॥
शुद्धात्म आराधन तथा, जिनधर्म प्रभावन ।
आनंद से हम भी करें ये ही हमारा प्रण ॥ ३६ ॥
उपसर्ग परीषह सब सहें जिनधर्म के लिये ।
सर्वस्व समर्पण हमारा धर्म के लिए ॥ ३७॥
कृत कारित अनुमोदन करो सब ये ही श्रेय है।
ध्रुव चिदानन्दमय शुद्धात्म ही एक ध्येय है ॥ ३८ ॥
रचयिता:- आ० ब्र० रवींद्र जी ‘आत्मन्’