श्री जम्बूस्वामी वैराग्य || Shri Jambuswami Vairagry

श्री जम्बूस्वामी वैराग्य

दोहा
ब्रह्मचर्य के मेरु प्रभु, जम्बुस्वामी नाम।
यौवन नारी मध्य भी किया परास्त सु काम ॥ १ ॥
पंचम काल के आदि में, गये मोक्ष अभिराम
महाशूर इन्द्रियजयी, शत्-शत् तुम्हें प्रणाम ॥२॥

छन्द
धनि-धनि हैं जम्बूस्वामी, वैरागी शिवपथ गामी।
राजगृह नगर मँझारी, फाल्गुन पूनम सुखकारी ॥३॥
मंगलमय जन्म हुआ जब, हर्षाये नर नारी सब
पितु अर्हद्दास तुम्हारे, सचमुच अर्हत् के प्यारे ॥ ४ ॥
माता जिनमती बड़भागी, जिनमत व्रत में अनुरागी
तत्त्वों के अति अभ्यासी, निज आतमज्योति प्रकाशी ॥५॥
आतम अनुभव रस लागा, भोगों का सब रस भागा।
ज्ञानात्मक भोजन करते, श्रद्धा से लेश न चिगते ॥६॥
निज पूर्व कर्म अनुसारे, बाहर के कार्य सम्भारे।
गृह जल में कमल समाना, दृष्टि वर्ते अम्लाना ॥७॥
षट् आवश्यक नित धारें, रत्नत्रय धर्म सम्हारें।
क्षत्रिय वृत्ति को धारा, अनुपम था शौर्य तुम्हारा ॥८॥
मधुक्रीड़ा में मदमाता, गज किया स्ववश थे त्राता।
मृग-अंक सुता गुणधारी, रत्नचूल कुदृष्टि जु डारी ॥९॥
मुनि वचन हृदय में धारे, श्रेणिक के हेतु विचारे।
नृप दूत राजगृह भेजा, तुम चले शीघ्र अति तेजा ॥१०॥
रत्नचूल को मार भगाया, निर्मल यश तुमने पाया।
शुभ न्याय मार्ग पग धारा, अन्याय न कभी विचारा ॥११॥
जब यौवन में पग दीना, विकसा तब अंग नवीना।
पर काम भाव से न्यारे, अति शान्त चरित्र तुम्हारे ॥१२ ॥
लखि शादी की तैयारी, कीना निषेध सुखकारी।
अति आग्रह लख प्रण कीना, शादी करके भी रहूँ ना ॥१३॥
प्रातः ही दीक्षा धारूँ, निर्ग्रन्थ रूप अवधारूँ।
कन्याएँ शीलव्रत धारी, प्रण कीना मंगलकारी ॥१४॥
एक बार विवाह रचायें, यदि उनको रोक न पायें।
फिर हम भी दीक्षा धारें, निज ज्ञायक भाव सम्हारें ॥१५॥
शादी का स्वांग रचाया, नाना विधि तुम्हें रिझाया।
बहु हाव-भाव प्रकटाये, सेवा चातुर्य दिखाये ॥१६॥
थी राग विराग लड़ाई, पर विजय तुम्हीं ने पाई।
कन्याएँ हुई विरागी, पर तुम न हुए अनुरागी ॥१७॥
दृढ़ ब्रह्मचर्य से स्वामी, गिरि-राग हुआ भू गामी।
विद्युच्चर चोर जु नामी, आया चोरी को स्वामी ॥१८॥
तब चर्चा में अनुरागे, अपनी सब सुधि-बुधि त्यागे।
प्रात: सिर तुम्हें झुकाया, अपना वृत्तांत सुनाया ॥ १९ ॥
उसकी मिथ्यामति भागी, तुमसा हो गया विरागी।
स्वामी सुधर्म ढिंग आये, गुरु चरणों शीश नवाये ॥ २० ॥
तत्क्षण ही दीक्षा धारी, कन्याएँ अर्जिका सारी।
कोमलता सब तज दीनी, अति कठिन जु चर्या लीनी ॥ २१ ॥
अति ही दुर्द्धर तप कीने, अरु घाति कर्म तज दीने।
सितमाघ सप्तमी आई, प्रभु केवल लक्ष्मी पाई ॥२२ ॥
अरिहंत परमपद पाया, सुर जय-जयकार कराया।
अष्टादश वर्ष सु स्वामी, हुई दिव्य देशना नामी ॥२३ ॥
चौरासी मथुरा आये, तहँ कर्म अघाति नशाये।
लोकान्त गमन तब कीना, अविचल अनर्घ्यपद लीना ॥ २४ ॥

दोहा
वीतराग विज्ञानमय, मंगलमूर्ति महान।
तुम-सम दृष्टि ज्ञानमय, हमको हो सुखदान ॥२५॥

आ. ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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