श्री धर्मनाथ स्तुति | Shri Dharmnath Stuti

हे धर्मनाथ ! महिमा महान, शब्दों से कही न जाती है |
धर्मी शुद्धातम की अनुभूति में प्रत्यक्ष दिखाती है || १ ||

है स्वानुभूति ही धर्म अहो, जो कर्म बंध विनशाता है |
दुखमय भवसागर में गिरते, जीवों को शिवसुख दाता है || २ ||

धर्म - धर्म सब कहे परन्तु, धर्म न सच्चा पहिचानें |
ज्ञायक स्वभाव के भान बिना, रागादि भाव में धर्म कहें || ३ ||

हे जिनवर तुमने एकमात्र, वीतराग भाव को धर्म कहा |
जो परम अहिंसामय रत्नत्रय, अरु दशलक्षण रूप अहा || ४ ||

यह पावन धर्म ही मंगलमय, अरु उत्तम शरणभूत स्वामी |
धर्मी है परम पारिणामिक, ध्रुव चिन्मय ज्ञायक अभिरामी || ५ ||

निज धर्मी की दृष्टी वर्ते, उपयोग स्वयं में थिर होवे |
निष्काम वंदना धर्मनाथ, मम धर्मरूप परिणति होवे || ६ ||

  • बाल ब्र. रविंद्र जी ’ आत्मन’
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