श्री महावीर पूजन । Shree Mahaveer Pujan

श्री महावीर पूजन

(हरिगीतिका)

जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं।
जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारण धीर हैं।
जो तरण-तारण भव-निवारण, भव-जलधि के तीर हैं।
वे वन्दनीय जिनेश, तीर्थकर स्वयं महावीर हैं।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वाननम्।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ: इति स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

अष्टक

(गीतिका)

जिनके गुणों का स्तवन पावन करन अम्लान है।
मल-हरन निर्मल-करन भागीरथी नीर-समान है।।
संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में।
वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

लिपटे रहें विषधर तदपि-चन्दन विटप निर्विष रहें।
त्यों शान्त शीतल ही रहो-रिपु विघन कितने ही करें।।संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

सुख-ज्ञान-दर्शन-वीर जिन अक्षत समान अखण्ड हैं।
हैं शान्त यद्यपि तदपि जो दिनकर समान प्रचण्ड हैं।। संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

त्रिभुवनजयी अविजित कुसुमसर सुभट मारन सूर हैं।
पर-गन्ध से विरहित तदपि निज-गन्ध से भरपूर हैं।। संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वापामीति स्वाहा।

यदि भूख हो तो विविध व्यंजन मिष्ट इष्ट प्रतीत हों।
तुम क्षुधा-बाधा रहित जिन क्यों तुम्हें उनसे प्रीति हो? ||संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

युगपद्-विशद् सकलार्थ झलकें नित्य केवलज्ञान में।
त्रैलोक्य-दीपक वीर-जिन दीपक चढ़ाऊँ क्या तुम्हें? ||संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

जो कर्म ईन्धन दहन पावक पुंज पवन समान हैं।
जो हैं अमेय प्रमेय पूरण ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान हैं।।संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

सारा जगत फल भोगता नित पुण्य एवं पाप का।
सब त्याग समरस निरत जिनवर सफल जीवन आपका।।संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अनर्घ्य पद के सामने?
उस परम पद को पा लिया हे पतित-पावन! आपने।।संतप्त…।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।

पंचकल्याणक अर्घ्य

(सोरठा)

सित छठवीं आषाढ़, माँ त्रिशला के गर्भ में।
अन्तिम गर्भावास, यही जान प्रणमूँ प्रभो।।

ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

तेरस दिन सित चैत, अन्तिम जन्म लियो प्रभु।
नृप सिद्धार्थ निकेत, इन्द्र आय उत्सव कियो।।

ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

दशमी मंगसिर कृष्ण, वर्द्धमान दीक्षा धरी।
कर्म कालिमा नष्ट, करने आत्मरथी बने।।

ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सित दशमी वैशाख, पायो केवलज्ञान जिन।
अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य, प्रभुपद पूजा करें हम।।

ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कार्तिक मावस श्याम पायो प्रभु निर्वाण तुम।
पावा तीरथधाम, दीपावली मनाय हम।।

ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णअमावस्यायां मोक्षमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(दोहा)

यद्यपि युद्ध नहीं कियो, नाहिं रखे असि-तीर।
परम अहिंसक आचरण, तदपि बने महावीर।।

(छन्द– पद्धरि)

हे मोह-महादलदलन वीर, दुद्धर तप संयम धरण धीर।
तुम हो अनन्त आनन्दकन्द, तुम रहित सर्व जग दंद-फंद।।

अघकरन करन-मन हरन-हार, सुख-करन हरन-भवदुख अपार।
सिद्धार्थ-तनय तन-रहित देव, सुर-नर-किन्नर सब करत सेव।।

मतिज्ञान रहित सन्मति जिनेश, तुम राग-द्वेष जीते अशेष।
शुभ-अशुभ राग की आग त्याग, हो गये स्वयं तुम वीतराग।।

षट् द्रव्य और उनके विशेष, तुम जानत हो प्रभुवर अशेष।
सर्वज्ञ वीतराग जिनेेश, जो तुम को पहिचाने विशेष।।

वे पहिचानें अपना स्वभाव, वे करें मोह-रिपु का अभाव।
वे प्रगट करें निज-पर विवेक, वे ध्यावें निज शुद्धातम एक।।

निज आतम में ही रहें लीन, चारित्र-मोह को करें क्षीण।
उनका हो जावे क्षीण राग, वे भी हो जावें वीतराग।।

जो हुए आज तक अरीहंत, सबने अपनाया यही पंथ।
उपदेश दिया इस ही प्रकार, हो सबको मेरा नमस्कार।।

जो तुमको नहिं जानें जिनेश, वे पावें भव भव-भ्रमण क्लेश।
वे माँगें तुमसे धन-समाज, वैभव पुत्रादिक राज-काज।।

जिनको तुम त्यागे तुच्छ जान, वे उन्हें मानते हैं महान।
उनमें ही निशदिन रहें लीन, वे पुण्य पाप में ही प्रवीन।।

प्रभु पुण्य-पाप से पार आप, बिन पहिचाने पावें संताप।
संतापहरण सुखकरण सार, शुद्धात्मस्वरूपी समयसार।।

तुम समयसार हम समयसार, सम्पूर्ण आत्मा समयसार।
जो पहचानें अपना स्वरूप, वे हो जायें परमात्म रूप।।

उनको ना कोई रहे चाह, वे अपना लेवें मोक्ष राह।
वे करें आत्मा को प्रसिद्ध, वे अल्पकाल में होंय सिद्ध।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

भूतकाल प्रभु आपका, वह मेरा वर्तमान।
वर्तमान जो आपका, वह भविष्य मम जान।।

(पुष्पांजलिंं क्षिपामि)

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