श्री देव शास्त्र गुरु पूजा |Shree Dev Shastra Guru pooja

श्री देव शास्त्र गुरु पूजा

नोट- यह ‘पुष्पेन्दु’ जी की पार्श्वनाथ पूजा का रूपांतर है

हे वीतराग हे शान्ति पुंज, करुणा सागर आदर्श देव ।
हे शांतिप्रदर्शक विमलशास्त्र, हेगुरु अधिनायक जगत सेव ॥
हमने भावुकता में भरकर, तीनों को आज पुकारा है।
गुरु देव ! ज्ञान की गंगा से, तुमने कितनों को तारा है ॥
हम द्वार तुम्हारे आये हैं; करुणा कर नेक निहारो तो ।
मेरे उर के सिंहासन पर, पग धारो नाथ पधारो तो ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह अत्र अवतर अवतर संवोषट् ।
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्र गुरु समूह अत्र मम सन्निहितो भवभव वषट् ।

(जल)
मैं लाया निर्मल जल धाग, मेरा अंतर निर्मल कर दो।
मेरे अंतर को हे भगवन्, शुचि सरल भावना से भर दो ॥
मेरे इस आकुल अंतरको, दो शीतल सुखमय शांति प्रभो ।
अपनी पावन अनुकंपा से, हर लो मेरो भव भ्रान्ति प्रभो ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो जन्म मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

(चंदन)
प्रभु पास तुम्हारे आया हूँ, भव का संताप सताया हूं ।
तव पद चन्दन के हेतु प्रभो, मलयाचल वंदन लाया हूँ ॥
अपने पुनीत चरणाम्बुज की, मुझको कुछ रेणु प्रदान करो।
हे संकट मोचन देव शास्त्र गुरु, मम मन के संताप हरो ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

(अक्षत)
प्रभुवर क्षण भंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है।
निज तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय पद पाया है ॥
अक्षय हों मेरे भक्ति भाव, प्रभु पद की अक्षय प्रीति मिले।
अक्षय प्रतीति रवि किरणों से, प्रभु मेरा मानस कंज खिले॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

(पुष्प)
यद्यपि शत दलकी सुषमा से, मानस सर शोभा पाता है ।
पर उसके रस में फंस मधुकर, अपने प्रिय प्राण गंवाता है ।
हे नाथ आपके पद पंकज, भव सागर पार लगाते हैं ।
इस हेतु तुम्हारे चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो काम वाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

(नैवेद्य)
व्यञ्जन के विविध समूह प्रभो, तन को कुछ क्षुधा मिटाते हैं।
चेतन की क्षुधा मिटाने में, प्रभु! ये असफल रह जाते हैं।
इनके आस्वादन से प्रभुवर, मैं तुष्ट नहीं हो पाया हूँ।
इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दीप)
प्रभु दीपक की मालाओं से, जग अन्धकार मिट जाता है।
पर अन्तर्मन का अन्धकार, इनसे न दूर हो पाता है ॥
यह दीप सजाकर लाये हैं, इनमें प्रभु दिव्य प्रकाश भरो।
मेरे मानस पट पर छाये, अज्ञान तिमिर को दूर करो ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति
स्वाहा।

(धूप)
यह धूप सुगंधित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है ।
पर जीवन अघ की ज्वाला में, ईंधन बनकर जल जाती है॥
प्रभुवर! इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईंधन कर डाले।
हे वीर विजेता कर्मों के, हे मुक्ति रमा वरनेवाले ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो दुष्टाष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

(फल)
यों तो ऋतु पति के ऋतु में हो, फल से उपवन भर जाता है।
पर अल्प अवधिका हक झोंका, उसको निष्फलकर जाता है॥
दो सरसभक्ति का फल प्रभुवर, जीवनतरु तभी सफल होगा।
स्वाभाविक आनन्द विभूषित, जीवन का प्रति पल होगा॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

(अर्घ्य)
पथ की प्रत्येक विषमता को, मैं समता से स्वीकार करूँ।
जीवन विकास के प्रियपथ की, बाधाओं का परिहार करूँ॥
मैं अष्ट कर्म आवरणों का, प्रभुवर आतंक हटाने को।
वसु द्रव्य संजोकर लाया हूँ, चरणों में नाथ चढ़ाने को॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

वन्दना गीत

अनादि काल से कर्मों का मैं सताया हूँ।
इसी से आपके दरबार आज आया हूँ ॥
न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है।
दया निधान का भगवान का भरोसा है ॥
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ॥१॥

जल न चंदन अरु न अक्षत, पुष्प भी लाया नहीं।
है नहीं नैवेद्य दीप अरु, धूप फल पाया नहीं।
अन्तर हृदय के भग्न में, उद्गार केवल साथ है।
और कोई भेंट के हित, अर्घ सजवाया नहीं ॥
हैं यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||२||

मांगना यद्यपि बुश, समझा किया में उम्र भर ।
किन्तु अब जब मांगने पर, बांध कर आया कमर ॥
और फिर सौभाग्य से जब, आप सा दानी मिला ।
तो भला फिर मांगने में, आज क्यों रक्खूं कसर ॥
प्रार्थना है आत्म-सम मुझको बनाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||३||

यदि नहीं यह दान देना, आपको मंजूर है ।
और फिर कुछ मांगने से, दास यह मजबूर है ॥
किन्तु मुंह मांगा मिलेगा, एक दृढ़ विश्वास है ।
क्योंकि लौटाना न इस, दर्बार का दस्तूर है ॥
प्रार्थना है कर्म बन्धन से छुड़ाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||४||

हे मात करुणाकर मुझे, अब गोद में ले प्यार दो ।
कह सकूं मैं मां तुम्हें, ऐसा मुझे अधिकार दो ॥
रुदन मेरा बन्द हो, ऐसा सुभग उपहार दो ।
मग्न हो गाया करूँ, ऐसा मधुर मल्हार दो ॥
अब मुझे पुचकार लो माता कहाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||५||

हे शांति पथ नायक गुरोवर, मुझे जीवन दान दो।
सर उठाकर चल सकूं, ऐसा मुझे अभिमान दो ॥
आ सकूं मैं भी निकट, ऐसा सरल सोपान दो।
बस शीघ्र तर जाऊँ भवोदधि, यह मुझे वरदान दो॥
नाम ही रटता रहूँ वरदान पाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||६||

हो न जब तक मांग पूरी, नित्य सेवक आयेगा ।
आपके पद कंज में, ‘पुष्पेन्दु’ शीश झुकायेगा ॥
है प्रयोजन आपको, यद्यपि न मेरी भक्ति से ।
किन्तु फिर भी नाथ मेरा, तो भला हो जायगा ॥
आपका क्या जायगा बिगड़ी बनाने के लिये ।
भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||७||
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(नव बार णमोकार मन्त्र सहित कायोत्सर्ग )