Hum jaise shravak logon ke liye samayik ki vidhi kya hai?
पण्डित टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक मे लिखा है कि तत्त्व विचार करने वाला व्यक्ति सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।
@aman_jain
भाई प्रश्न करता ने सामायिक करने की विधि पूछी है।
सामायिक कैसे करते है, कैसे क्षमा मांगते है, कैसे अपने दोषो की आलोचना करते है आदि।
क्षमा करें, जल्दी मे नहीं देख पाया था
चारि दिशाओ में णमोकार मंत्र और सभी तीर्थक्षेत्र जिनालयों को नमस्कार करके दिशाओ को बांध कर सामयिक के समय समस्त परिग्रह का त्याग करके मैन को एकाग्रता पूर्वक सामयिक पाठ पड़ता है अथवा चिंतवन करता है।
विशेष वर्णन के लिए आप रत्नकरंश्रावकाचार में गाथा नम्बर - 97 को देख सकते है।
सामयिक में आप अमितगति आचार्य का पाठ या लघु प्रतिकमन भी पढ़ सकते है।
एक इन्द्रिय, दो इन्द्रिय आदि जीवो से कैसे क्षमा मांगते है, कैसे अपने दोषो की आलोचना करते है?
Dhanyavaad
और जैसे बड़े उत्साह से सामायिक करने बैठा, परन्तु बैठते ही कुछ याद आया की चाबी वहाँ भूल आये है, अब हलाकि चाबी का विकल्प उसके मन में चलता रहेगा पर यदि वह सामायिक न छोड़े तो उसका पुण्य नहीं जायेगा, ऐसे ही उत्साह से मंदिर या तीर्थ पर गए, सोचा की बहुत पूजा करेंगे, पर वहाँ पहुंचकर किसी कारन वस परिणाम नहीं लगे तो भी यह अपनी पूजा नहीं छोड़े तो पुण्य नहीं जाता क्योंकि इसका अभिप्राय तो पूजा का था और इसने पूरी पूजा की भी परन्तु परिणाम नहीं लगे या कुछ विसुद्धि नहीं हुई सो इसके हाथ में नहीं है इसलिए पुण्य में कुछ नुक्सान नहीं होता है फल तो अभिप्राय का होता है । ऐसा सुदृस्टितरंगणी में लिखा है ।
सुदृस्टि तरंगिनि का भाव ऐसा नही है।
विकल्प कितने भी आये हमे उसके ज्ञाता रहकर उसमे उपयोग नही लगाना राग द्वेष नही करना सब अपनी योग्यता अनुसार हो जाएगा।
पूजन के टाइम पर पूरा उपयोग बाकी विकल्पों में रहेगा तो पुण्य तो नही मिलेगा पाप का बांध हो सककता है।
जैन दर्शन में क्रिया का महत्व नही बल्कि परिणामो का महत्व है।
CHINMAY JI OR KISHAN JI ME SE KISHI POST SHI H?
Extract from Sudrasti Tarangni (pg 152) :
ऐसे सामयिक के षट भेद हैं-
- नाम सामायिक - तहां इष्ट पदार्थ, राग, रंग, गीत, नृत्य, रूप, रतन, कंचन, सपूत पुत्र, भाई, माता, पिता, राज इन आदिक वस्तु के नाम सुनि राग नहीं करना, सो नाम सामायिक है। तथा शत्रु, अविनयी, दुराचारी इत्यादि खोटे नाम सुनि द्वेष नहीं करना, सो नाम सामायिक है। तथा ऐसा विचारना कि जो मैं सामायिक करीौं हों, इत्यादिक भावना, सो नाम सामायिक है।
- स्थापना सामायिक - और मनुष्य, पशु तथा मिट्टी, काष्ठ, पाषाण के मनुष्य पशून के नाना प्रकार आकार देखि, ऐसा नहीं विचारना कि ए भला है, ए भला नाहीं। तथा बावड़ी, कूप, सरोवर, मंदिर आदि देखि राग-दट्वेष भले-बुरे नहीं कल्पना, सो स्थापना सामायिक है।
- द्रव्य सामायिक, - कोई भव्यात्मा द्रव्यसामायिक के सर्व पाठ जाननेवारा संध्या समय सामायिक करवे को पद्मासन तथा कायोत्सर्ग तनकी मुद्रा किए तिष्ठै है। ताका चित्त वशीभूत नाहीं, सो चित्त अनेक जगह भ्रमण करै है। अरु पाठ शुद्ध पढ़ता तिष्ठै है सो जीव तथा शरीर सामायिक रूप है, ताकूं द्रव्य सामायिक कहिए।
- क्षेत्र सामायिक - और स्वर्ग, नरक, पाताल, मध्यलोक के अनेक द्वीप-समुद्र, अढ़ाई द्वीप विषैं तिष्ठते आर्य-मलेच्छ क्षेत्र, वन, बाग, पर्वत, इत्यादिक जो सुख-दुःख रूप शुभाशुभ देश, ग्राम, क्षेत्र तिन मैं रागद्वेष नहीं करना, सो क्षेत्र सामायिक हैं।
- काल सामायिक - और वसंतादि षद ऋतु तथा शीत, उष्ण, वर्षकाल, तथा शुक्लपक्ष, कृष्णपक्ष, तथा दिन, रात्रि तथा वार, नक्षत्रादि ए शुभाशुभ देखि इनमें रागद्वेष नहीं करना। तथा उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी तथा प्रथम, दूजा, तीजा, चौथा, पंचमा, छठा काल, इन संब कालन की प्रवृत्ति विषैं शुभाशुभ नाहीं होना, रागद्वेष नाहीं करना सो काल सामायिक है।
- भाव सामायिक - और सामायिक करते जीव-अजीवादि तत्त्वन मैं तौ उपयोग की प्रवृत्ति, शरीर की एकाग्रता-निश्चलता, और मिथ्यात प्रमाद के अभाव तैँ शुद्ध समता रस भींजते भाव, और सामायिक करते वचन, मन, काय इनकी एकता सहित सामायिक ही विषैं भावन की प्रवृत्ति, सर्व जीवन तैं स्नेहभाव, सर्व की रक्षाभाव, व्रत संयम की बढ़वारी रूप परणाम, धर्म शुक्लध्यानमई भाव चेष्टा, सो भाव सामायिक है।
चाबी भूलने वाला उदहारण भी इसी ग्रन्थ में है पर मुझे अभी वो मिल नी रहा