ध्यान के संबंध में जैन आगम में कुछ श्लोक व गाथाएं। Shlok related with Meditation

  1. निश्चय धर्मध्यान मुनि को होता है गृहस्थ को नहीं

ज्ञानार्णव अधिकार 4/17
खपुष्पमथवा शृंगं खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमें ॥17॥

= आकाशपुष्प अथवा खरविषाण का होना कदाचित संभव है, परंतु किसी भी देशकाल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी संभव नहीं ॥17॥

तत्त्वानुशासन श्लोक 47
मुख्योपचारभेदेन धर्मध्यानमिह द्विधा। अप्रमत्तेषुं तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ॥47॥

= धर्मध्यान मुख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का है। अप्रमत्त गुणस्थानों में मुख्य तथा अन्य प्रमत्त गुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है।

समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 96
ननु वीतरागस्वसंवेदनज्ञानविचारकाले वीतरागविशेषणं किमिति क्रियते प्रचुरेण भवद्भिः, किं सरागमपि स्वसंवेदनज्ञानंमस्तीति। अत्रोत्तरं विषयसुखानुभवानंदरूपं स्वसंवेदनज्ञानं सर्वजनप्रसिद्धं सरागमप्यस्ति। शुद्धात्मसुखानुभूतिरूपं स्वसंवेदनज्ञानं वीतरागमिति। इदं व्याख्यानं स्वसंवेदनव्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यमिति भावार्थः।

= प्रश्न - वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान का विचार करते हुए आप सर्वत्र वीतराग’ विशेषण किसलिए लगाते हैं। क्या सराग को भी स्वसंवेदन ज्ञान होता है?
उत्तर - विषय सुखानुभव के आनंद रूपसंवेदन ज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध है। वह सराग को भी होता है। परंतु शुद्धात्म सुखानुभूति रूप स्वसंवेदनज्ञान वीतराग को ही होता है। स्वसंवेदन ज्ञान के प्रकरण में सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए।

प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 254/347
विषयकषायनिमित्तोत्पन्नेनार्त्तरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माश्रितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति।

= विषय कषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र ध्यानों में परिणत गृहस्थजनों को आत्माश्रित धर्म का अवकाश नहीं है।

द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 34/96
असंयतसम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारंपर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते, तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यंतं जघन्यमध्यभोत्कृष्टभेदेन विवक्षितै कदेशशुद्धनयरूपशुद्धोपयोगो वर्तते।

= असंयत सम्यग्दृष्टि से प्रमत्तसंयत तक के तीन गुणस्थानों में परंपरा रूप से शुद्धोपयोग का साधक तथा ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक विशुद्ध शुभोपयोग वर्तता है और उसके अनंतर अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत के गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद को लिये विवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है।

मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305/9
मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते। तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते।

= मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्तलोह के गोले के समान गृहस्थों को परमात्मध्यान प्राप्त नहीं होता।

(देवसेन सूरिकृत भावसंग्रह 371-397, 605)

भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 81/232/24
क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलन ताभ्यां विहीनो रहितः मोहक्षोभविहीनः। एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्धैकस्वभावस्य चिच्चमत्कारलक्षणश्चिदानंदरूपः परिणामो धर्म इत्युच्यते। स परिणामो गृहस्थानां न भवति। पंचसूनासहितत्वात्।

= परिषह व उपसर्ग के आने पर चित्त का चलना क्षोभ है। उससे रहित मोह-क्षोभ विहीन है। ऐसे गुणों से विशिष्ट शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावी आत्मा का चिच्चमत्कार लक्षण चिदानंद परिणाम धर्म कहलाता है। पंचसून दोष सहित होने के कारण वह परिणाम गृहस्थों को नहीं होता।

  1. गृहस्थ को निश्चयध्यान कहना अज्ञान है

मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/305
ये गृहस्था अपि संतो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रूवते ते जिनधर्मविराध का मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्याः।

= जो गृहस्थ होते हुए भी मनाक् आत्मभावना को प्राप्त करके हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, वे जिनधर्म विराधक मिथ्यादृष्टि जानने चाहिए।

भावसंग्रह/385
(गृहस्थों को निरालंब ध्यान माननेवाला मूर्ख है)।