सप्त व्यसन । Sapt Vyasan

1

जुआ दुःख रूप, बर्बादी का कूप ।
शर्त नहीं धरना, सहज काम करना ।।

चोरी का धन, मोरी में जावे ।
भयभीत रहते, महादण्ड पाते ।।

अण्डा मांस खाते, जीवों को सताते ।
रोगों को बढ़ाते, महादुःख पाते ।।

करने से शिकार, जीवन को बेकार ।
तड़फ-तड़फ वे मरते, नरकों में दुःख भरते ।।

पीने से शराब, बुद्धि हो खराब ।
जरदा और धूम्रपान, भांग अफीम दुःखखान ।।

शरीर भी गलता, महापाप लगता ।
नशा दुखदाई, छोड़ो-छोड़ो भाई ।।

पर स्री माता बहिन समान है ।
वासना की दृष्टि से होता हैरान है ।।

धोबी की शिला सम, वेश्या को टालो ।
दूर से ही छोड़ो, शील धर्म पालो ।।

दुखदाई आदतें निंंद्यनीय कुव्यसन ।
छोड़ो इन्हें तब ही, धर्म में लगेगा मन ।।


2

छोड़ो-छोड़ो रे व्यसन, ये हैं दुर्गति कारन।
छोड़ो-छोड़ो रे जुआ, बर्बादी का कुंआ।।
छोड़ो-छोड़ो रे शराब, करती बुद्धि को खराब।
छोड़ो-छोड़ो रे चोरी, तेरी जिंदगी थोरी।।
छोड़ो-छोड़ो मांस खाना, ये है रोगों का खजाना।
छोड़ो-छोड़ो ये शिकार, हिंसा कर्म दुखकार।।
छोड़ो-छोड़ो परनार, ये है दुर्गति का द्वार।
छोड़ो-छोड़ो वेश्या संग, तब ही चढ़े धर्म का रंग।।

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: बाल काव्य तरंगिणी

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