संत निरंतर चिंतत ऐसै, आतमरूप अबाधित ज्ञानी ।। टेक ।।
वरणादिक विकार पुदगल के, इनमें नहिं चैतन्य निशानी।
यद्यपि एक क्षेत्र अवगाही, तदपि लक्षण भिन्न पिछानी ।।
संत निरंतर चिंतत …।।1।।
रागादिक तो देहाश्रित हैं, इनतें होत न मेरी हानी।
दहन दहत ज्यों गगन न तद्गत, गगन दहनता की विधि हानी ।।
संत निरंतर चिंतत … 112 ।।
मैं सर्वांग पूर्ण ज्ञायक रस, लवणखिल्लवत लीला ठानी।
मिलो निराकुल स्वाद न यावत, तावत पर-परनति हित मानी ।।
संत निरंतर चिंतत …।।3 ।।
‘भागचन्द्र’ निरद्वन्द निरामय, मूरति निश्चय सिद्ध समानी।
नित अकलंक अवंक शंक बिन, निर्मल पंक बिना जिमि पानी ।।
दिगम्बर वीतरागी ज्ञानी संत बाधा रहित अपने आत्म स्वरुप का चिन्तन करते हैं॥टेक॥
वे मुनिवर विचार करते हैं कि ये रोग तो शरीर के आधार से हुये हैं और चेतन तत्व होने से इनसे मेरा कोई नुकसान नहीं है। जिस प्रकार अग्नि में ईंधन जलता है परन्तु अग्नि ईंधन रुप नही होती, तथा जैसे आकाश में अग्नि की उष्णता दिखाई देने पर भी आकाश के प्रदेश जलते नहीं है तात्पर्य यह है कि आत्मा सकल ज्ञेयों को जानने पर भी ज्ञेय रुप नहीं होता॥1॥
वर्ण, रस आदि ये सभी पुद्गल का विकारी परिणमन है। इसमें चैतन्य का अंश मात्र भी नहीं है। यद्यपि एक क्षेत्र में मिले हुए दिखाई देने पर भी शरीर और आत्मा दोनों के लक्षण सदैव भिन्न-भिन्न हैं॥2॥
जिस प्रकार नमक के सारें प्रदेशों में खारापन व्याप्त है उसी प्रकार मेरे सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों में एक मात्र ज्ञायक की अनुभूति ही है। जब तक इस जीव को आत्म तत्व की निराकुलता के आनन्द की अनुभूति नही होती तब तक यह जीव पर द्रव्यों से अपना हित मानता रहता है॥3॥
भागचन्द्र कवि कहते है कि मुनिभगवन्त विचार करते है कि निश्चय से यह आत्मा सिद्धों के समान, निरद्धन्द और विकार रहित करते हैं ।जिस प्रकार कीचड रहित पानी शुद्ध और निर्मल होता है वैसे ही यह आत्मा सदा कलंक से रहित, आश्चर्यकारी और शंकादि दोषों से रहित चैतन्य वस्तु है॥4॥