Samurchan jeev ke utpathi staan
samurchan jiv teno lok me utpan hote he.
वे एकेन्द्रिय ,विकलेन्द्रिय , लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य , and कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय सैनी असैनी तिर्यंच (इनका गर्भज जन्म भी होता है) होते है।
means इनका समुर्चछन जन्म होता है
ये पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों होते है but लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य केवल अपर्याप्तक ही होता है
Toh kya apni body me bhi Samurchan jeev utpathi hoti hai
हां समुर्चछन जीव हमारी body में भी होते हैं।
So if a surgeon is doing a surgery to protect the life of patient and in this there is hinsa of Samurchan jeev so it is correct to pursue the surgery
हां , वहां हिंसा होती है तथा नाभि, जांघ , बगल में भी समुर्चछन जीव होते हैं वहाँ निरंतर जन्म मरण हो ही रहा है ।
surgery ,उसकी अनुमोदन तो नहीं करनी चाहिए , सही है ऐसा भी नही है but कदाचित हमें कुछ बीमारी हो जाये तो अगर surgery करवानी चाहिए ऐसा भी नहीं है but अगर नहीं करवाते हैं तो उस बीमारी से अगर परिणाम ख़राब होते हैं तो वो उस surgery की हिंसा से बहुत हानिकारक है qki surgery की हिंसा तो सर्जरी के time ही होगी परंतु उससे परिणाम ख़राब होने से हमारा संसार काल बढ़ सकता है , हमारा सम्यक्त्व दूर हो जाता है, फिर उससे अन्य शरीर धारण करने से फिर उसमें समुर्चछन उत्पन्न होंगे फिर उनका भी पाप लगेगा इसलिए आप निर्णय कर ही सकते है कि क्या उचित है “एक बार की हिंसा या वही हिंसा बार बार”
surgery करवानी पड़े तो ये विचार करना चाहिए की इस भूमिका में ये कार्य करना पड़ रहा है पर ये कार्य करना उचित नहीं है
But doctor ko Toh punya hi lagega na
जितने जीवों की हिंसा हो रही है उसका पाप तो लगेगा ही और उसकी हिनाधिकता उसके परिणाम पर निर्भर करती है ।
But doctor is saving the life of patient
अगर docter surgery krte वक़्त ये विचार उसके श्रद्धान में चल रहा है की मैं किसी का करता नहीं , मैं किसी को बचा सकता नहीं ,तो पाप कम पुण्य ज्यादा लग सकता है।
but अगर नही विचार करता है तो वो दया का भाव होने से शुभ ही है पर उससे हीन पुण्य का ही बंद होता है nd पाप ज्यादा।
But aachrya ugraditya ne bhi shalya chikitsa (surgery) ko medicine ka ek part bataya hai you can see on this linkhttps://www.google.co.in/url?sa=t&source=web&rct=j&url=https://m.facebook.com/jainglory/photos/a.352466174900460.1073741828.309770515836693/734657230014684/%3Ftype%3D3&ved=2ahUKEwiE8aTF-rXZAhXJppQKHabjAZQQFjAAegQIARAB&usg=AOvVaw0nYwwCK0Q-KvYuRsXlTU5O
Agar doctor yeh vichar Karen ki patient ke Marne se patient ka uske nimmith se rehne walle anant negodiya and Samurchan jeev ki hinsa hogi Toh Toh surgery karne se punya hi legega
हमारे शरीर में मरण के बाद भी जीवों की उत्पत्ति होती रहती है।
एकेंद्रिय जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीव की रक्षा करना अधिक उचित है। क्योंकि एकेंद्रिय जीव में तो सम्यक्त्व प्राप्त करने की सामर्थ्य है नही , किन्तु पंचेन्द्रिय जीव में है, अतः यदि उसकी रक्षा करने के बाद उसका जीवन रत्नत्रय में लगता है तो वह सफल है।
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कोई पूछ सकता है कि हमें क्या पता … की ये व्यक्ति सम्यक्त्व प्राप्त करेगा ही? इसलिए एकेंद्रिय की जान बचाना उचित है।
उत्तर- भावना भव नाशिनी।
होगा नही होगा ये उस व्यक्ति के कर्मोदय पर निर्भर करता है … किन्तु हो सकता है यह तो संभावना है ही। अतः हमारा फ़र्ज़ तो यही है कि उसकी जान बंचाएँ।
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फिर कोई पूछा सकता है कि एकेंद्रिय जीवों को मर जाने दें???
उत्तर- अपने भावों को निर्मल रखना। सबके प्रति दया भाव रखना। मर जाने दिया जाए ऐसा भाव न लाकर … उनके कर्मोदय का विचार करके संसार की असारता के संबंध में सोचना। और उन जीवों की आयु भी तो कम ही होती है, अतः में बचा लूँगा … ऐसा सोचना तो व्यर्थ है।
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डॉ को पुण्य लगेगा या पाप???
उसके जैसे भाव हों । यदि भाव ऐसे हों कि यदि मैंने इसे बचा लिया तो हर कोई मेरी तारीफ करेगा , मैं ज्यादा पैसे ले लूंगा… इत्यादि। तो जान बचाकर भी पाप का ही बंध होगा।
और भावना ऐसी हो कि कैसे भी करके ये व्यक्ति बच जाए… किन्तु किसी कारण वश न बच सके … तो भी पुण्य बंध होगा ।
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(और डॉ को पुण्य लगता हो चाहे पाप… इसमे हमारा क्या हित है?? अपने काम से काम रखा जाए तो ज्यादा लाभदायक होगा बजाए किसी और के परिणामों को नापना।)
True that! अगर हम ये समझ जाये तो बात ही क्या है फिर। .
वर्षाकाल के प्रारम्भ में वर्षाकाल के जल और पृथिवी के सम्बन्ध से मेंढक, चूहा, मछली और कछुआ आदि की उत्पत्ति देखी जाती है ये जीव 5 इन्द्रिय सम्मूर्छन जीव होते है क्या? हजार योजन लंबा और 500 योजन चौड़ा महामत्स्य भी सम्मूर्छन जीव है क्या? … 5 इन्द्रिय सम्मूर्छन जीव के सम्यग्दर्शन, अणुव्रत आदि हो सकते है क्या? … इन मुद्दों पर कृपया हो सके तो मार्गदर्शन करें! …
हाँ जी पंच इन्द्रिय सम्मूर्छन पर्याप्त को सम्यक दर्शन हो सकता है पंचम गुणस्थान भी हो सकता है भूमिका नुसार व्रत भी होते हैं
http://www.jainkosh.org/w/images/0/0d/Jeevsamas_color.pdf
http://www.jainkosh.org/w/images/2/24/5_पर्याप्ति_प्ररूपणा_colour.pdf
यहाँ निवृवत्त्यपर्याप्तक को छठा गुणस्थान भी कहा है, पर वो कैसे संभव है ? क्योंकि निवृवत्त्यपर्याप्तक तो (may be) वो हुआ जो अभी पैदा ही नहीं हुआ है मतलब गर्भ में है, क्योंकि अभी उसकी पर्याप्ति पूरी नहीं हुई है
छठें गुणस्थान में जो निवृत्य अपर्याप्तक का है वह आहारक शरीर की अपेक्षा कहा हैं औदारिक शरीर की अपेक्षा नहीं आहारक ऋद्धि धारी मुनिराजों के जब तक आहारक शरीर के योग्य पर्याप्ती पूरी नहीं होती वो तब तक निर्व त्य अपर्याप्तक कहलाते हैं।
इसी प्रकार किसी अपेक्षा तेरहवें गुण स्थान में समुदघात के समय कपाट दशा में निर्व त्य अपर्याप्तक कहा जाता है उपरोक्त लिंक में तालिका में तेरहवा गुण स्थान भी लिया है