समुद्घात स्वरूप | SamudGhaat Swarup

अथ समुद्घातस्वरूप लिख्यते ।

               दोहा

चरन जुगल जिनदेवके, वंदत हों कर जोर ॥
जिहँ प्रसाद निजसंपदा, लहै कर्म दल मोर ॥ १ ॥

समुद्घात जे सात हैं, तिनको कछु विस्तार ॥
कहूं जिनागम शाखतें, जिय परदेश विचार ॥ २॥

उदयकषाय प्रचंड ह्वै, निकसत जियपरदेश |
दमि दुर्जनकी देहको, बहुरि न करत प्रवेश ॥ ३ ॥

रोगादिक संयोगसों, औषध परसन काज ॥
निकश जाय परदेश जो, आवत करै इलाज ॥ ४॥

केवल ज्ञानी आत्मा, लोक हद्दलों जाय ॥
परदेशन पूरित करै, उदै न कछू बसाय ॥ ५ ॥

मरन समय जिहँ जीवको समुदघात थित होय ॥
प्रथम परस गति आयकें, बहुर जात है सोय ॥ ६ ॥

षष्टम गुण थानीनको, उपजै कहुं संदेह ॥
प्रश्न करत जिनदेवको, निकसत अद्भुत देह ॥ ७ ॥

सुर मनुष्य कर वैक्रिया, नाना ठौर रमाहिं ॥
सब थानक परदेशजिय, निकसै आवै जाहिं ॥ ८ ॥

तैजस वपु मुनिरायके, निकसत उभय प्रकार ॥
अशुभ शुभन के काजको समुदघात तिहँ बार ॥ ९ ॥

तंतू सब लागे रहैं, सुख दुख बेवे आप ||
देहादिकके प्रसरते, परदेशनिमें व्याप ॥ १० ॥

‘भैया’ बात अगम्य है, कहन सुननकी नाहिं ॥
जानत हैं जिन केवली, जे लच्छन जिय पाहिं ॥ ११ ॥

इति समुद्घात स्वरूप

रचयिता: पंडित श्री " भैया भगवतीदास जी"
Source: ब्रह्म विलास

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