समता रस का पान करो, अनुभव रस का पान करो।
शांत रहो शांत रहो, सहज सदा ही शांत रहो।।
नहीं अशांति का कुछ कारण, ज्ञान दृष्टि से देख अहो।
क्यों पर लक्ष्य करे रे मूरख!, तेरे से सब भिन्न अहो।।(1)
देह भिन्न है, कर्म भिन्न हैं, उदय आदि भी भिन्न अहो।
नहीं अधीन है तेरे कोई, सब स्वाधीन परिणमित हो।।(2)
पर नहिं तुझसे कहता कुछ भी, सुख दुख का कारण नहीं हो।
करके मूढ़ कल्पना मिथ्या, तू ही व्यर्थ आकुलित हो।।(3)
इष्ट अनिष्ट न कोई जग में, मात्र ज्ञान के ज्ञेय अहो।
हो निरपेक्ष करो निज अनुभव, बाधक तुमको कोई न हो।।(4)
तुम स्वभाव से ही आनंदमय, पर से सुख तो लेश न हो।
झूठी आशा तृष्णा छोड़ो, जिन वचनों में चित्त धरो।।(5)
पर द्रव्यों का दोष न देखो, क्रोध अग्नि में नहीं जलो।
नहिं चाहो अनुरूप प्रवर्तन, भेदज्ञान ध्रुव दृष्टि धरो।।(6)
जो होता है वह होने दो, होनी को स्वीकार करो।
कर्तापन का भाव न लाओ, निज हित का पुरुषार्थ करो।।(7)
दया करो पहले अपने पर, आराधन से नहीं चिगो।
कुछ विकल्प यदि आवे तो भी, संबोधन समतामय हो।।(8)
यदि माने तो सहज योग्यता, अहंकार का भाव न हो।
नहीं माने भवितव्य विचारो, जिससे किञ्चित् खेद न हो।।(9)
हीन भाव जीवों के लखकर, ग्लानि भाव नहीं मन में हो।
कर्मोदय की अति विचित्रता, समझो स्थितिकरण करो।।(10)
अरे कलुषता पाप बंध का, कारण लखकर त्याग करो।
आलस छोड़ो बनो उद्यमी, पर सहाय की चाह न हो।।(11)
पापोदय में चाह व्यर्थ है, नहीं चाहने पर भी हो।
पुण्योदय में चाह व्यर्थ है, सहजपने मन वाँछित हो।।(12)
आर्तध्यान कर बीज दुख के, बोना तो अविवेक अहो।
धर्मध्यान में चित्त लगाओ, होय निर्जरा बंध न हो।।(13)
करो नहीं कल्पना असंभव, अब यथार्थ स्वीकार करो।
उदासीन हो पर भावों से, सम्यक् तत्त्व विचार करो।।(14)
तजो संग लौकिक जीवों का, भोगों के आधीन न हो।
सुविधाओं की दुविधा त्यागो, एकाकी शिवपंथ चलो।।(15)
अति दुर्लभ अवसर पाया है, जग प्रपंच में नहीं पड़ो।
करो साधना जैसे भी हो, यह नरभव अब सफल करो।।(16)