(तर्ज : समता रस का पान करो… )
समता भाव सदा ही सुखमय, मोह क्षोभ दुख रूप अहो।
मुग्ध न होओ क्षुब्ध न होओ, सदा सहज ही सुखी रहो ॥टेक॥
अनुकूल बना पर द्र॒व्यों को तो, कौन कहाँ कब सुखी हुआ।
अरे! मान्यता मिथ्या छोड़ो, मत देखो क्या कहाँ हुआ॥
अपने ही अंतर में देखो, सुख सागर लहराय अहो॥1॥
अपना सुख तो अपने में है, बाहर मत देखो भाई।
पुण्य-पाप के खेल हैं झूठे, इनमें मत उलझो भाई ॥
भेदज्ञान के अभ्यासी ही, पावें परमानंद अहो॥2॥
शुद्धातम ही परम इष्ट है, निश्चय ही श्रद्धेय सदा।
सहज ज्ञेय है परम ध्येय है, परम शुद्ध प्रभु रूप सदा॥
ज्ञायक तो ज्ञायक ही रहता, होय नहीं पर रूप अहा॥3॥
पर से नहीं अपेक्षा कुछ भी, आत्माराधन मंगलमय।
इन्द्र नहीं है फन्द नहीं, निर्ग्न्थ मार्ग ही मंगलमय॥
अन्तर्बल अब प्रगट करो, है साम्य भाव ही शरण अहो॥4॥
अन्तर्दृष्टि प्रभु की भक्ति, सदा हृदय में बनी रहे।
पर का दोष न देखो किंचितू, ज्ञानमयी वैराग्य रहे॥
निज में ही सन्तुष्ट रहें नित, यही भावना नाथ अहो॥ 5॥
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण