कर्मों के कतिपय कौतूहल, प्राणी को सम्मोहित करते ॥ टेक ॥
आँखों को भाया सम्मोहन,
ऋजुर्भाव का करता दोहन ।
तन-मन की चौकसी घनेरी, पलक मारते वे सब हरते ॥ १ ॥
नियमित बांचीं धर्म कथायें,
फिर भी बढ़ती गईं व्यथायें ।
कर्मचक्र पल में अन्तर्घट, मोह और माया से भरते ॥ २ ॥
जग के नाते हैं सब झूठे,
आपस में रहते हैं रूठे ।
राग-द्वेष की चक्रवात में, तथ्य त्याग तथा में बहते ॥ ३ ॥
तीरथ सबके सब कर डाले,
अनगिन अहंकार हैं पाले ।
दूर हटाते रहे दोष नित, फिर भी रहे घनेरे घिरते ॥४॥
एक श्वास में अठदस मरते
मर-मर कर वे जीवन धरते ।
मिले वही तट अगर अन्ततः, जिससे प्राणी निश्चित तरते ॥५॥
- डॉ० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, अलीगढ़