“सामायिक" का स्वरूप, लाभ एवं उसके भेद
सम्-राग-द्वेष रहित, आय-उपयोग की प्रवृति। राग-द्वेष की परिणति का अभाव करके साम्यभावरूप परिणति को प्राप्त करना ‘सामायिक’ है। सम्-राग-द्वेष की निवृति, आय-प्रशमादिरूप ज्ञान का लाभ। राग-द्वेष में माध्यस्थ भाव रखना ‘सामायिक’ है। मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम ही ‘सामायिक’ है। सम्यकत्व, ज्ञान, संयम और तप इन चार प्रकार की अवस्था को ‘सामायिक’ कहते हैं। अपने स्वरूप की साधना में भूल न हो जाय उसके लिए शरीर की शुद्धि के साथ शुद्ध कपड़े पहिन कर एकान्त में स्थिरता पूर्वक अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करना ही ‘सामायिक’ है।
‘सामायिक’ क्यों करना चाहिये :-
आर्तध्यान, रौद्रध्यान रूप संसार प्रवृत्ति की निवृत्ति और धर्मध्यान रूप प्रवृत्ति में सर्व जीवों के प्रति वैर विरोध को त्यागकर संयम तप और त्याग भावना के भावरूप उदासीनता को प्राप्त कर - समताभाव की सिद्धि के लिए सामायिक करने में आवे तो वह वीतरागता की प्राप्ति का कारण है।
‘सामायिक’ आत्म कल्याण के हेतु करने में आती है। जितने - जितने अंशो में विषय कषाय घट जावे और परिणामों में वीतरागता व शान्ति बढ़ती जावे, उतने उतने अंशो में धर्मस्थान की प्राप्ति के लिए मुमुक्षुओं का समायिकादि षट् आवश्यक करना परम कर्तव्य है।
‘सामायिक’ करने से लाभ:
‘सामायिक’ करने वाले मुमुक्षु के सब प्रकार के पापास्रव रुककर सातिशय पुण्य का बन्ध होता है। भावपूर्वक सामायिक करने से सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है। आत्मतत्व की प्राप्ति का मूल कारण ‘सामायिक’ ही है। एकाग्रतारूप साम्यता से ही जीव को निष्कर्मरूप अवस्था प्राप्त होती है।
अभव्य जीव को भी ‘द्रव्य-सामायिक’ के प्रभाव से नौवे ग्रैवेयक के अहमिंद्र पद की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर ‘भावसामायिक’ से केवलज्ञान क्यों नही प्राप्त होगा? अवश्य होगा।
‘सामायिक’ करने से पंचेन्द्रिय-विषय एवं अंतरंग कषाय का नाश होता है और पदार्थ के प्रति ममता छूट जाती है। छह काय के जीवों के प्रति समता प्रकट होती है।
‘सामायिक’ का प्रारम्भिक अभ्यासी श्रावक शुभोपयोग से सातिशय पुण्य बाँध कर अभ्युदय युक्त सर्व सुख भोग कर मनुष्य भव की प्राप्ति करता है; और फिर निर्ग्रन्थ-मुनि होकर शुद्धोपयोग को प्राप्त करके संवर पूर्वक समस्त कर्मों की निर्जरा करते हुए मोक्षपद की प्राप्ति कर लेता है।
'सामायिक करने का स्थान :-
जिस स्थान में, चित्त में विक्षेप करने के कारण न हों, जहाँ अनेक लोगों के वाद-विवादिक का कोलाहल न हो, अधिक असंयमी जीवों का आवागमन न हो, स्त्रियों का, नपुंसकों का, विशेष आना जाना न हो, गीत, नृत्य वाद्य यंत्रों आदि का प्रचार समीप में न हो, तिर्यन्चों एवं पक्षियों का संचार न हो, जहाँ बहुत शीत तथा उष्णता की, प्रचण्ड पवन की, वर्षा की बाधा न हो, डाँस, मच्छर, मक्खी, सर्प, बिच्छु इत्यादिक जीवों के द्वारा कोई बाधा न हो, ऐसे विक्षेप रहित एकान्त स्थान हो, वन हो या जीर्ण बाग का मकान हो, गृह हो, चैत्यालय हो या धर्मात्मा पुरुषों का प्रोषधोपवास करने का स्थान हो, ऐसे एकान्त विक्षेप रहित स्थान में प्रसन्नचित होकर, समस्त मन के विकल्पों को छोड़कर ‘सामायिक’ करनी चाहिये |
‘सामायिक’ प्रारम्भ करने की विधि :
“सामायिक" प्रारम्भ करने से पहिले अपनी इन्द्रियों के विषय-व्यापार से विरक्त होकर अपने केश-वस्त्रादि को यथाविधि बाँध लेना चाहिए, जिससे के सामायिक करते समय क्षोभ न हो। सामायिक के काल में खान, पान, व्यापार, रोजगार, लेन-देन विकथा, आरम्भ, समारंभ विसंवादादि समस्त पाप क्रियाओं को मन-वचन-काय-कृत-कारित अनुमोदना से त्याग कर एवं मर्यादा के बाहर क्षेत्र में नियत समय तक हिंसादि पांच पापों को सर्वथा त्याग कर राग-द्वेष रहित सकल जीवों पर समता भाव धारण कर; आर्त्त, रौद्र ध्यान छोड़कर एक चिदानन्द स्वरूप शुद्धात्मा का ध्यान करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।
“अहं समस्त सावद्ययोगाद्विरतोस्मि"
“मैं समस्त सावद्ययोग का त्याग करता हूँ।" ऐसे कहकर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके दोनों हाथों को सीधा लटका कर दोनों पावों के बीच में चार अंगुल की जगह रखकर नासादृष्टि लगाकर कायोत्सर्ग पूर्वक आसन पर खड़ा होकर अरहन्त सिद्ध भगवान की साक्षी से दो घड़ी 48 मिनिट तक “सामायिक’ करने की आज्ञा लेकर प्रतिज्ञा करनी चाहिये।
मेरी सामायिक काल की मर्यादा पूर्ण न हो जाय, तब तक मैं दूसरे स्थान का एवं परिग्रह का त्याग करता हूँ, पुनश्च अपनी देह पर रहे हुए परिग्रह एवं शरीर के प्रति ममता का त्याग करने के अभ्यास पूर्वक नौ बार ‘णमोकार मन्त्र’ का जाप्य मन में बोलकर, 3 आवर्त ए एक शिरोनति करनी चाहिये। इसी प्रकार चारों दिशाओं में से प्रत्येक में नौ बार णमोकार मंत्र का जाप्य, 3 आवर्त व एक शिरोनति करनी चाहिये। (दोनों हाथ जोड़कर बाई ओर से दाहिनी ओर ले जाते हुए घुमाना आवर्त्त है और मस्तक झुकाना शिरोनति है) प्रत्येक दिशा में पंच परमेष्ठी हैं, उस दिशा में विद्यमान तीन लोक के कृत्रिम-अकृत्रिम जिन चैत्यालयों को नमस्कार करें। बाद में जिस दिशा से आज्ञा ली है, उस दिशा में अष्टांग नमस्कार करके तीन बार नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, बोलकर आसन लगाना चाहिए और फिर सामायिक पूर्ण होने तक उस आसन को नही बदलना चाहिए। किसी प्रकार की विघ्न-बाधा आने पर भी अपने आसन को नहीं छोड़ना चाहिए।
आसन लगाने की विधि :
(1) खड़गासन- अपने दोनों पैरों को चार अंगुल के फासले से रखकर दोनों हाथ को सीधा लटका कर सीधा खड़ा होने को “खड़गासन” कहते हैं।
(2) पद्मासन- दाहिनी जांघ पर बांये पैर, बाँई जांघ पर दाहिने पैर को रखकर गोद में बायें हाथ की हथेली को नीचे रखकर दाहिने हाथ की हथेली को ऊपर रख कर सीधा बैठने को “पद्मासन’’ कहते हैं।
(3) अर्द्धपद्मासन- बायें पैर की जांघ के ऊपर दाहिना पैर रखकर पद्मासन की भाँति हाथों की हथेलियों को रखकर सीधा बैठने को “अर्द्धपद्मासन" कहते हैं।
“सामायिक" करते समय पूर्व दिशा में इन आसनों में से कोई एक आसन लगाकर आँखों को आधी खुली रखकर सौम्य नासादृष्टि से उपयोग को (तत्वों के ज्ञेयों की). तत्वदृष्टि (षट् द्रव्य व उनकी गुणपर्यायों) पर लगाना चाहिये। (सामायिक काल में मौन पूर्वक शान्त चित्त से प्रमाद छोड़कर उत्साह पूर्वक “सामायिक" करना चाहिये। मनोवृत्ति की शुद्धि से चित्त शान्त होता है और उपयोग निश्चल दशा को प्राप्त होता है। शुद्धात्म स्वरूप में उपयोग की स्थिरता करना ही यथार्थ ‘सामायिक’ है।)
यदि सामायिक पाठ याद न हो तो इस पुस्तक में जिस क्रम से सामायिक के पाठ छपे हैं, उसके अनुसार शुद्ध उच्चारण करें। साथ में अपने दूसरे साथी हों तो उनके स्वर में स्वर मिलाकर पाठ करें, पाठ का भाव बराबर समझते रहना चाहिये।
सामायिक में णमोकार मंत्र, अ सि आ उ सा नमः अर्हसिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः, अरिहंत सिद्ध, ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उ सा नमः, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, मंत्र का 108 बार जाप करें। जाप पूरे होने पर पूर्वोक्त लिखे अनुसार पुनः . चारों दिशाओं में णमोकार मंत्र पूर्वक नमस्कार करें।
(सूत की जापमाला में 108 दाने होते हैं। उनका रहस्य यह है कि गृहस्थ समरम्भ, समारम्भ, आरंभ ये तीन मन-वचन और काय से स्वयं करते हैं, कराते हैं जो क्रोध, मान, माया, लोभ के वश में होकर करते हैं, इसलिए इनके परस्पर गुणने से 108 कर्मास्रव के भंग होते हैं। कोई भी पापकार्य उक्त्त प्रकार से होता रहता है जिससे अशुभ-कर्म बंधता हैं इसके रोकने का उपाय ‘सामायिक’ है।)
‘सामायिक’ पूर्ण करने की विधि :
सामायिक काल में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में 32 दोषों में से कोई भी दोष जाने- अनजाने प्रमादवश हो गया हो तो अरहन्त भगवान से क्षमा माँगनी चाहिए। सामायिक पाठ बोलने में मात्रा, बिन्दी, पद, अक्षर, गाथा सूत्र आदि का हीनाधिक, विपरीत, अशुद्ध-उच्चारण किया हो या और कोई दोष लग गया हो तो उनकी भगवान से क्षमा माँगनी चाहिये।
सामायिक काल में मन, वचन, काय से आत्मभावना में न ठहर कर उपयोग को अशुभ भावों में (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग) असावधानी से लगाया हो या और किसी प्रकार का पाप दोष लगा हो तो भगवान से क्षमा माँगनी चाहिए।
सामायिक में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, जान से, अनजान से किसी प्रकार का पाप दोष प्रमादजन्य हो गया हो तो भगवान से क्षमा माँगनी चाहिए।
इस तरह क्रिया करने के बाद 6 बार ‘णमोकार मन्त्र’ का जाप्य करके “सामायिक" पूर्ण करनी चाहिए।
‘सामायिक’ के छः भेद :
- नाम-सामायिक- शुभ-अशुभ नाम को सुनकर राग-द्वेष नहीं करना, सो ‘नाम-सामायिक’ है।
- स्थापना-सामायिक- कोई स्थापना प्रमाणादिक से सुन्दर है और प्रमाणादि से हीनाधिक होने से असुन्दर है। उनके प्रति रागद्वेष का अभाव, सो ‘स्थापना सामायिक’ है। ’
- द्रव्य-सामायिक- सुवर्ण, चाँदी, रत्न, मोती इत्यादि एवं मिट्टी, काष्ठ, पाषाण, कण्टक, राख, भस्म, धूलि इत्यादिक में राग-द्वेष रहित सम देखना, सो ‘द्रव्य-सामायिक’ है।
- क्षेत्र-सामायिक- महल, उपवनादिक रमणीक, शमशानादिक अरण्यक क्षेत्र में राग-द्वेष छोड़ना सो क्षेत्र-सामायिक’ है।
- काल-सामायिक- हिम, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद ऋतु में और रात्रि, दिवस व शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष इत्यादिक काल में राग-द्वेष का वर्जन, सो काल-सामायिक है।
- भाव-सामायिक- समस्त जीवों के दुःख न हो ऐसे मैत्रीभाव से तथा शुभ-अशुभ परिणामों के अभाव को ‘भाव-सामायिक’ कहते हैं।
वैर-त्याग चिन्तन:
“सामायिक" करने वाला समस्त जीवों में मैत्री धारण करता हुआ परम क्षमा को धारण करता है। कोई जीव मेरा वैरी नहीं है, अज्ञानवश उपार्जन किया मेरा कर्म ही वैरी है। मैंने स्वयं अज्ञान भाव से क्रोधी, मानी, लोभी होकर विपरीत परिणाम किये। जिस वस्तु-व्यक्ति से मेरा अभिमान पुष्ट नहीं हुआ उसको वैरी माना, किसी ने मेरी प्रशंसा-स्तुति नहीं की, उसी को वैरी समझा। मेरा आदर-सत्कार नहीं किया व उच्च-स्थान नहीं दिया उसको वैरी समझा। किसी ने मेरे दोषों को प्रगट किया उसको वैरी जाना-सो यह सब मेरी कषाय से, दुर्बुद्धि से अन्य जीवों में वैर-बुद्धि उपजी है, इसको छोड़कर क्षमा अंगीकार करता हूँ और अन्य समस्त जीव मेरा अज्ञान भाव जानकर मुझे क्षमा करें।
आत्म चिन्तन
समस्त दिन में प्रमाद के वश होकर तथा कषायों के वशीभूत होकर अथवा विषयों में रागी-द्वेषी होकर किन्हीं एकेन्द्रियादिक जीवों का घात किया तथा अनर्थक प्रवर्तन किया व सदोष भोजन किया अथवा किसी जीव के प्राणों को पीड़ा पहुँचाई तथा कर्कश-कठोर मिथ्या वचन कहे अथवा किसी की विकथा की अथवा अपनी प्रशंसा करी अथवा अदत्त धन ग्रहण किया अथवा पर के धन में लालसा करी तथा पर की स्त्री में राग किया तथा धन परिग्रह आदि में लालसा करी, ये समस्त पाप खोटे किए - अब ऐसे पापरूप परिणाम से भगवान पंच परमगुरु, हमारी रक्षा करें। ये सब परिणाम मिथ्या हों। पंच परमेष्ठी के प्रसाद से हमारे पापरूप परिणाम न हों। ऐसे भावों की शुद्धता के लिए कायोत्सर्ग करके पंच नमस्कार पूर्वक नौ बार जाप करें।
‘सामायिक’ करने की विधि
शरीर से शुद्ध होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर किसी मन्दिर आदि एकान्त स्थान में ‘सामायिक’ करना चाहिये। प्रत्येक दिशा में तीन आवर्त व एक शिरोनति करके नमस्कार पूर्वक अपने आसन पर बैठना चाहिये व सामायिक की प्रत्येक क्रिया को मनन पूर्वक करना चाहिये। मन को पवित्र रखना चाहिये, जब तक सामायिक पूर्ण न हो अपने आसन को नहीं छोड़ना चाहिये। छोटे बालकों को अपने पास नहीं बैठाना चाहिये।
‘सामायिक’ के बाद एक वहत् कायोत्सर्ग करना चाहिये जिसमें कम से कम 27 बार या 108 बार णमोकार मन्त्र का जाप करना चाहिये। सामायिक के समय दृष्टि व मन पर कड़ा नियन्त्रण रखना चाहिये। अन्त में पूर्ववत् ही दिशा वंदन करना चाहिये।
Source: प्रतिक्रमण-आलोचना-सामयिक पाठ, श्री जैन मुमुक्षु महिला मंडळ, देवलाली