सामायिक भावना | Samayik Bhavna

सामायिक भावना

(हरिगीतिका)

श्रीसिद्ध आगम अर्हत जिन, नमि प्रकट की जिन आत्मा ।
उन प्रशममय कृतकृत्य प्रभु सम, आत्म में विचरण करूँ ॥१ ॥

कोलाहलों से रहित सम्यक्, शान्तता में तिष्ठ कर ।
सब कर्मध्वंसक ज्ञानमय, निज समय को अब मैं वरूं ॥ २ ॥

समता मुझे सब जीव प्रति, नहिं बैर किञ्चित् भी रहा ।
मैं सर्व आशा रहित हो, सम्यक् समाधि को धरूं ॥३ ॥

हो राग वश या द्वेष वश मैंने विराधे जीव जो ।
उनसे क्षमा की प्रार्थना कर मैं क्षमा धारण करूँ ॥४॥

मन वचन अथवा काय से, कृत कारिते अनुमोदते ।
निज रत्नत्रय में दोष लागे, गर्हा द्वारा परिहरूं ॥५ ॥

आहार विषय कषाय तज, अत्यन्त शुद्धि भाव से ।
तिर्यंच मानव देव कृत, उपसर्ग में समता धरूं ॥ ६ ॥

भय शोक राग अरु द्वेष, हर्ष अरु दीनता औत्सुक्यता ।
रति अरति के परिणाम तज, सर्वज्ञता अब मैं धरूं ॥७ ॥

जीवन मरण या हानि लाभे, योग और वियोग में ।
मैं बन्धु - शत्रु दुःख में, या सुक्ख में, सम ही रहूँ ॥८ ॥

मम ज्ञान में है आत्मा, दर्शन चरित में आत्मा ।
प्रत्याख्यान संवर योग में भी मात्र है मम आत्मा ॥९॥

दृग ज्ञान लक्षित और शाश्वत, मात्र आत्मा मैं अरे ।
अरु शेष सब संयोग लक्षित, भाव मुझसे हैं परे ॥ १० ॥

संयोगदृष्टि की सदा से, इसलिए दु:ख अनुभवे ।
संयोगदृष्टि दुखमय, मन-वचन-तन से अब तजूँ ॥ ११ ॥

जो समय मय रहते सदा अरु मोक्ष जिनकी दशा में।
उन सम समय की प्राप्ति हेतु, भक्ति से निज प्रभु नमूँ ॥ १२ ॥

Source: Bruhad Adhyatmik Path Sangrah

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