Samanya Shravakachaar - Pt. Shri Ratanchand Ji Bharill

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Contents:

  • प्रकाशकीय

प्रकाशकीय (ग्यारहवाँ संस्करण)

अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ने अपने शैशवकाल में ही अपनी अलग पहचान बना ली है। आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि आज सारे देश में इसकी 312 शाखायें एवं 12,938 सक्रिय कार्यकर्ता सदस्य हैं।
युवापीढ़ी की आधुनिक शैली, खान-पान, रहन-सहन देखकर तथा वर्तमान वातावरण और आसपास के परिवेश को देखकर पुरानी पीढ़ी की यह चिन्ता स्वाभाविक ही थी कि अब धर्म और धर्मायतनों की सुरक्षा कैसे होगी? पर फैडरेशन ने उसके कार्यकलापों से उन्हें निश्चिन्त कर दिया।
फैडरेशन के प्रयासों से आज गाँव-गाँव में नवयुवक धार्मिक कार्यों में रुचि लेने लगे हैं, स्वाध्याय में संलग्न हुए हैं। इसतरह अपनी निराश पुरानी पीढ़ी के हदयों में आशा का संचार कर दिया है। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि अब आगामी पीढ़ी धर्मकार्यों में पीछे नहीं रहेगी।
सारे देश में घूम-घूम कर जन-जन तक जिनवाणी का संदेश पहुँचाने का संकल्प लिए श्रावाकाचार-शाकाहार रथ का परिभ्रमण इसका प्रबल प्रमाण है। फैडरेशन ने सत्साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में पूजन-विधान साहित्य एवं सदाचार संबंधी साहित्य प्रकाशित करने का संकल्प किया है। यह सामान्य श्रावकाचार भी फैडरेशन की ग्रन्थमाला का ही 39वाँ सुरभित पुष्प है। जो निश्चित ही जन-जन में अपनी सुरभि बिखरेगा।
हमारे अनुरोध को स्वीकार कर विद्वद्ववर्य पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल ने प्रस्तुत कृति में जिनागम में उपलब्ध सम्पूर्ण (40) श्रावकाचारों का अध्ययन कर उनमें से सार तत्त्व निकाल-निकाल कर गागर में सागर भर दिया है। एतदर्थ हम उनके कृतज्ञ हैं।
पुस्तक अत्यन्त सरल भाषा व सुबोध शैली में लिखी गई है। आबाल-बृद्ध सबके लिए अत्यधिक उपयोगी है। अधिकतम व्यक्ति इससे लाभान्वित हों - यही मेरी भावना है, अब तक अल्प अवधि में तीन भाषाओं में ग्यारह संस्करणों में 78 हजार प्रतियाँ प्रकाशित होना इसकी लोकप्रियता का सशक्त प्रमाण है। 2 अक्टूबर, 2015

- परमात्मप्रकाश भारिल्ल
महामंत्री

अपनी बात

अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ने सन् 1991-92 वर्ष को शाकाहार श्रावकाचार वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया था। समाज के उत्साह को देखकर जिसका समय बाद में बढ़ाकर महावीर जयन्ती, 1993 ई. तक कर दिया था।
उक्त संदर्भ में शाकाहार सम्बन्धी एक पुस्तक डॉ. भारिल्ल ने लिखी थी, मुझसे अपेक्षा की गई थी कि मैं भी आगम के आलोक में सामान्य श्रावकाचार पर एक सरलसुबोध पुस्तक लिखू।
जब मैं णमोकार महामंत्र’ पुस्तक लिख रहा था, तब डॉ. शुद्धात्मप्रभा ने भी मुझसे कहा था कि “दादा! आप श्रावकाचार पर भी एक ऐसी पुस्तक लिखो, जिसमें सामान्य श्रावकाचार का विस्तृत विवेचन हो, मनुष्यपर्याय में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पूर्व की पृष्ठभूमि कैसी होती है, धर्म धारण करने की पात्रता कैसी होनी चाहिए? - यह बात अच्छी तरह उभर कर सामने आ जाये।"
मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी। मैंने भी इस तरह की पुस्तक की कमी का गहराई से अनुभव किया, जिसमें एक ही स्थान पर सामान्य श्रावक की सम्पूर्ण आचार संहिता श्रावकों को उपलब्ध हो सके। पर चाहने मात्र से कुछ नहीं होता; जबतक जिस कार्य के सम्पन्न होने का समय नहीं आता, तबतक वैसे कारण-कलाप भी नहीं मिलते। - शाकाहार-श्रावकाचार वर्ष में यह बनाव सहज ही बन गया। इस निमित्त से मुझे सभी लगभग (40) श्रावकाचारों का गहराई से अध्ययन करने का सुअवसर मिला, जिससे मुझे तद्विषयक ज्ञान लाभ तो मिला ही, परिणामों में विशुद्धि अपने से आचरण में आंशिक निर्मलता भी आई। इसका मुझे अति हर्ष है। मुझे विश्वास है, पाठक इसे पाकर प्रसन्न होंगे और वे इस कृति का अधिकतम लाभ लेकर मेरे श्रम को सार्थक करेंगे।
जैसी मुझे आशा थी, विश्वास था कि पाठक अन्य कृतियों की भाँति इसे भी अपनायेंगे, पढ़ेंगे। मेरे लिए यह उत्साहवर्धक बात है कि नौ वर्ष की अल्प अवधि में ही इसकी 71 हजार 200 प्रतियाँ पाठकों तक पहुंच चुकी हैं और दो हजार का यह आठवाँ संस्करण पाठकों के हार्थों में पहुंच रहा है। गुजराती, कन्नड़ व मराठी में भी यह कृति छप चुकी है।

- रतनचन्द भारिल्ल

असीम शान्ति का अनुभव होता है

आदरणीय,
आपने मेरे लिखे अनुसार विदाई की बेला, संस्कार, इन भावों का फल क्या होगा, णमोकार मंत्र, सामान्य श्रावकाचार और सत्य की खोज भेजकर मानो मुझे अमूल्य चिन्तामणि रत्न ही दे दिया है।
सभी पुस्तकें मैंने आद्योपान्त पढ़ी प्रत्येक पुस्तक बार-बार पढ़ता हूँ, मैं आपकी ये सभी पुस्तकें सफर में भी सदैव साथ रखता हूँ। इन्हें पढ़ने में आनन्द के साथ-साथ मुझे जो ज्ञान मिला, उसकी महिमा मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। मेरे जीवन ने इन पुस्तकों के निमित्त से नया मोड़ लिया है। सचमुच मेरा तो जीवन ही पलट गया। इन पुस्तकों में जो चित्रण है, अधिकांश वह सब मेरे ऊपर घटित होता है।
उस उपकार का मैं सदैव ऋणी रहूँगा। अब जब कोई गलत ख्याल बनता है, तत्क्षण ही इन पुस्तकों की विषयवस्तु मेरे मानसपटल पर छा जाती है और सारे बुरे ख्याल तत्क्षण ही रफूचक्कर हो जाते हैं, दिल से निकल जाते हैं। और मेरे जीवन में एक नई रोशनी बिखर जाती है, असीम शान्ति का अनुभव होता है।
धन्य है इन पुस्तकों को, जिनका एक-एक वाक्य करोड़ों का है, अमूल्य है। ऐसा साहित्य मिलना, मिलने पर उसे रुचि से पढ़ना, गुनना और अपने अनुभव में लेना - एक से एक अत्यन्त दुर्लभ है।
सच पूछो तो सही जीवन जीने की कला ही मुझे इन पुस्तकों में मिल गई है। इनके बारे में जितना लिखू, वह सब समुद्र में राई के दाने के बराबर है। मेरी भावना है कि ऐसी पुस्तकों का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार हो।

आपका ही
सुखमालचन्द जैन
अरिहन्त गारमेण्ट्स, राजपूत मार्केट करावलनगर रोड़, शिव विहार दिल्ली - 94

सामान्य श्रावकाचार

प्राथमिक पृष्ठभूमि

जिनागम के निर्देशानुसार मद्य-मांस-मधु का सेवन न करना, सात व्यसनों से सदा दूर रहना, पाँचों पापों का स्थूल त्याग होना, रात्रि में भोजन नकरना, बिना छने जल का उपयोग न करना, प्राणीमात्र के प्रति करुणाभाव होना और नित्य देवदर्शन व स्वाध्याय करना तो सामान्य श्रावकों का प्राथमिक कर्त्तव्य है। यद्यपि सामान्य श्रावक अभी अव्रती है, उसने अभी प्रतिज्ञापूर्वक कोई व्रत ग्रहण नहीं किया है, पर वह सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्म को प्राप्त करने की भावना रखता है; एतदर्थ उसे उपर्युक्त प्राथमिक निर्देशों का पालन तो करना ही चाहिए। इनके बिना तो आत्मा परमात्मा की बात समझना भी संभव नहीं है।

सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग निज आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होता है, तत्त्वार्थ श्रद्धान से उपलब्ध होता है तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु उस उपलब्धि में निमित्त होते हैं। एतदर्थ उसे भगवान आत्मा, सात तत्त्व एवं देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप समझना भी अत्यन्त आवश्यक है।

वर्तमान संदर्भ में, जबकि मद्य-मांस का सेवन सभ्यता की श्रेणी में सम्मिलित होता जा रहा हो, शराब शरबत की तरह आतिथ्य-सत्कार की वस्तु बनती जा रही हो, अंडों को शाकाहार की श्रेणी में सम्मिलित किया जा रहा हो, मछलियों को जलककड़ी की संज्ञा दी जा रही हो और इन सबको खाने-पीने के प्रचार-प्रसार में शासन का भरपूर सहयोग व प्रोत्साहन मिल रहा हो - ऐसी स्थिति में इन सबकी हेयता का ज्ञान कराना और इनसे होनेवाली हानियों से परिचित कराना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गया है। इन सबका त्याग किये बिना धर्म पाना तो दूर, उसे पाने की पात्रता भी नहीं आती।

वैसे तो ब्रह्मचारी, क्षुल्लक व ऐलक जैसे संयमी आत्मसाधक भी श्रावक की ही श्रेणी में आते हैं, पर यहाँ उन प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावकों के आचरण का प्रतिपादन करना अपेक्षित नहीं है। यहाँ तो प्राथमिक श्रावक के सामान्य सदाचार की चर्चा एवं समीक्षा ही अभीष्ट है।
धर्म का स्वरूप एवं सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति के लिए कैसी पात्रता होनी चाहिए? इस बात का विचार ही यहाँ सामान्य श्रावकाचार के रूप में किया जा रहा है।

सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का धारी व्यक्ति ही आत्मापरमात्मा की बात समझ सकता है, सात तत्त्वों की बात समझ सकता है, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की पहचान कर सकता है। अतः प्रत्येक जैन श्रावक को सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का धारी होना चाहिए।

अष्ट मूलगुण : स्वरूप एवं भेद

सामान्यत: मद्य-मांस-मधु और पाँचों उदुम्बर फलों का त्याग ही अष्ट मूलगुण है। मूलगुण अर्थात् मुख्यगुण, जिनके धारण किये बिना श्रावकपना ही संभव न हो। जिसप्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष का खड़ा रहना संभव नहीं है, उसीप्रकार मूलगुणों के बिना, श्रावकपना भी संभव नहीं है। ये मुख्यरूप में आठ हैं, अत: इन्हें अष्ट मूलगुण कहते हैं।

मद्य-मांस-मधुव पाँच उदुम्बर फलों का सेवन त्रस जीवों की हिंसा का हेतु होने से निर्दयता का जनक है। इनके खाने-पीने से हिंसा का महापाप तो होता ही है; बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है, व्यक्ति विवेक खो बैठता है। अत: इनका त्यागकरके निर्मलबुद्धि को प्राप्त श्रावक ही जैनधर्म के उपदेश का पात्र होता है।

पहले इनका त्याग करे, तभी व्यक्ति धर्मोपदेश को ग्रहण कर सकता है। यद्यपि अष्ट मूलगुणों का कथन सर्वत्र चारित्र के प्रकरण में आया है; परन्तु जहाँ-जहाँ भी मूलगुणों का वर्णन आया है, वहाँ यह अभिप्राय अवश्य प्रगट किया है कि जो जीव हिंसा का त्याग करना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम मद्य-मांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों को छोड़ देना चाहिए।

इससे यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रत्येक अहिंसाप्रेमी जैन को सबसे पहले अर्थात् सम्यग्दर्शन के भी पहले अष्ट मूलगुणों का धारण करना और सप्त व्यसनों का त्याग करना अनिवार्य है। इसके बिना तो सम्यग्दर्शन होना भी संभव नहीं है।

मद्य-मांस-मधुवपंच उदुम्बर फलों के त्याग के अतिरिक्त सप्त व्यसनों का त्याग भी श्रावक का प्राथमिक कर्तव्य है। सप्त व्यसन के त्याग की प्रेरणा देते हुए भूधरशतक में कविवर भूधरदास कहते हैं -

जुआ खेलना-मांस-मद, वेश्या विसन-शिकार।
चोरी-पर रमनी रमन, सातों विसन निवार ||50 ||

(1) जुआ खेलना (2) मांस खाना (3) मदिरापान करना (4) वेश्यासेवन करना (5) शिकार खेलना (6) चोरी करना (7) परस्त्री रमण करना - ये सात व्यसन हैं।

ये सातों व्यसन दुःखदायक, लोकनिंद्य, पाप की जड़ एवं दुर्गति में पहुँचानेवाले हैं।

इनका स्वरूप तो इनके नामों से ही स्पष्ट है तथा अष्ट मूलगुणों में इनमें से अधिकांश प्रकारान्तर से सम्मिलित हो जाते हैं; इसकारण मूलगुणों के प्रकरण में यथास्थान इनका स्पष्टीकरण आयेगा ही तथा इनसे तो जैनाजैन सभी लोग भली-भाँति परिचित हैं; पर अष्ट मूलगुणों से तो जैन जन भी पूर्णत: परिचित नहीं हैं। अत: यहाँ तो जैन आगम के आलोक में श्रावकाचार के रूप में मूलत: अष्ट मूलगुणों की विवेचना ही अभीष्ट है।

आगम में अष्ट मूलगुणों के विविध रूप:

श्रावकधर्म के आधारभूत मुख्यगुणों को मूलगुण कहते हैं। मूलगुणों में मद्य-मांस-मधुव पाँच उदुम्बर फलों का त्याग-ये आठ तो हैं ही, इनके अतिरिक्त इनके ही समान हिंसा के आयतन होने से पांचों पाप, सातों व्यसन एवं रात्रि भोजन का त्याग तथा अनछने पानी का उपयोग न करना आदि भी सम्मिलित हैं।
मूलगुणों के सन्दर्भ में जिनागम में समागत कतिपय महत्त्वपूर्ण उल्लेख इसप्रकार हैं -

मद्य-मांस-क्षौद्रं, पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतकामै: मोक्तव्यानि प्रथमेव ॥
(अमृतचन्द्राचार्य : पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक - 61)

प्राणियों के प्राण पीड़नरूपद्रव्यहिंसा का त्याग करने के इच्छुक जनों को प्रथम ही प्रयत्नपूर्वक मद्य-मांस-मधु और पांच उदुम्बर फलों का त्याग करना चाहिये।

मद्य-मांस-मधुत्यागः सहोदुम्बरपञ्चकैः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा श्रुते ॥
(आचार्य सोमदेव : यशस्तिलकचम्पू, श्लोक - 255)

आगम में पाँच-उदुम्बर फल एवं मद्य-मांस-मधुके त्याग को गृहस्थों के आठ मूलगुण बतलाये हैं।

तत्रादौ श्रद्धधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम्। मद्य-मांस-मधुन्युज्झेत पञ्चक्षीरफलानि च ॥
(पण्डित आशाधर : सागार धर्मामृत, अध्याय 2, श्लोक - 2)

सबसे पहले जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का श्रद्धान करते हुए हिंसा का त्याग करने के लिए मद्य-मांस-मधु और पाँच क्षीरफलों का त्याग करना चाहिये।

मद्यं-मासं तथा क्षौद्रमथोदुम्बरपञ्चकम् । वजयच्छ्रावको धीमान् केवलं कुलधर्मवित् ।।
(पाण्डे राजमल्ल : लाटीसंहिता अध्याय 1, श्लोक -7)

केवल अपने कुलधर्म की मर्यादा को जाननेवाले श्रावकों को भी मद्यमांस मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो करना ही चाहिये।

मज्जु-मंसु-महु-परिहरहि, करि पंचुंबर दूरि। आयहं अन्तरि अट्ठहांनि तस उप्पज्जई भूरि ॥
(योगीन्द्रदेवसेन : सावयधम्म दोहा, गाथा - 22)

मद्य-मांस-मधु का परिहार करो, पाँच उदुम्बर फलों को दूर से ही त्यागो; क्योंकि इन आठों के अन्दर त्रसजीव होते हैं।

अथ मद्य-पला-क्षौद्र, पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । व्रतं जिघृक्षणा पूर्व विधातव्यं प्रयत्नतः ॥
(आचार्य पद्यनन्दि : श्रावकाचार सारोद्धार अध्याय 3, श्लोक - 6)

श्रावक के व्रतों को ग्रहण करने के इच्छुक पुरुष को सबसे पहिले मद्यमांस-मधु और पाँच उदुम्बर फलों के खाने का प्रयत्न पूर्वक त्याग करना चाहिये।

मद्य-मांस-मधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् ।अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ।।
(आचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक - 66)

मद्य-मांस-मधुके त्यागकेसाथ पाँचों पापों केस्थूलत्यागको गृहस्थों के आठ मूलगुण कहे गये हैं।

के मद्य-मांस-मधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नुः । अष्टौ मूलगुणाः पञ्चोदुम्बरैश्चा कष्वपि ।।
(आचार्य शिवकोटि : रत्नमाला, श्लोक - 19)

मद्य-मांस-मधु के त्याग सहित पाँचों अणुव्रत ही मनुष्यों के आठ मूलगुण कहे गये हैं। पाँच उदुम्बर फलों के साथ मद्य-मांस-मधु के त्याग रूप आठ मूलगुण तो अबोध बालक भी धारण कर लेते हैं।

मधु-मांसपरित्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ॥
(आचार्य जिनसेन : महापुराण, पर्व 38, श्लोक - 122)

गृहस्थ के मद्य, मांस एवं पाँच उदुम्बर फलों का त्याग तथा हिंसादि पाँच पापों से विरक्तिरूप सार्वकालिक औत्सर्गिक व्रत तो जीवनपर्यन्त रहते हैं।

हिंसादिपञ्चदोषविरहितेन द्यूत-मद्य-मांसानि परिहर्तव्यानि ।

हिंसादि पाँच पापोंसे रहित श्रावकको द्यूत, मद्य और मांस का परिहार करना चाहिये।

हिंसाऽसत्यस्तेयादब्रह्म परिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसान्मद्याद्विरति गृहिणोऽष्ट सन्त्यमीमूलगुणाः।।
( चामुण्डराय : चारित्रसार श्रावकाचार, श्लोक - 15)

स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से तथा जुआ, मांस और मद्य से विरत होना गृहस्थों के आठ मूलगुण हैं।

मधुनो-मद्यतो-मांसाद्द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्या संगमनाच्चास्य, विरतिनियमः स्मृतः ।।
(रविषेणाचार्य : पद्यचरित, पर्व 14 श्लोक - 23)

मद्य-मांस-मधु से, जुआ से, रात्रिभोजन से तथा वेश्यासंगमरूप निंद्यकर्मों से जो विरति होती है, उसे नियम कहते हैं।
यद्यपि रविषेणाचार्य एवं जिनसेनाचार्य ने इन्हें मूलगुण नाम न देकर नियम कहा है, पर धर्म को श्रवण करने और धारण करने की पात्रता के लिये इनको आवश्यक माना है तथा नामान्तर से यह भी मूलगुण ही हैं।

मांस मद्य मधु द्यूत वेश्या स्त्री नक्तभुक्तिः। विरति नियमो ज्ञेयोऽनन्तकायादि वर्जनम् ॥
(जिनसेनाचार्य (प्रथम) : हरिवंशपुराण, सर्ग 58, श्लोक - 43)

मद्य-मांस-मधु, छूत, वेश्या तथा रात्रि भोजन से विरक्त होना एवं अनन्तकाय आदि का त्याग करना नियम कहलाता है।
इन्होंने आचार्य रविषेण के उपुर्यक्त कथन का ही समर्थन करते हुये उसमें अनन्तकाय वनस्पति के त्याग पर विशेष बल दिया है।

पंचुम्बर सहियांइ सत्तवि विसणाई जो विवज्जेई। सम्मत्त विसुद्ध मई, सो दसण सावओ भणिओ ॥
उंबर बड़ पिप्पल, पिंपरीय संधाण तरूपसूणाई। णिच्चं तस संसिद्धांइ, ताईं परिवज्जियब्बाइ ॥
जूयं मजं मंस, वेसा पारद्धि-चोर-परयारं।दुग्गइ गमणस्सेदाणि, हेउ भूदाणि पावाणि ||

(आचार्य वसुनन्दि : वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा - 57,58,59)

सम्यग्दृष्टि जीवों के पाँच उदुम्बर फलों सहित सातों व्यसनों का त्याग होता है।
ऊमर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर तथा संधानक (अचार) और वृक्षों के फूल नित्य त्रसजीवों से भरे हुए रहते हैं; इसलिये इन सबका त्याग करना चाहिये।
जुआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी एवं परदार सेवन ये सातों व्यसन दुर्गति गमन के कारण हैं।

उदुम्बराणि पञ्चैव, सप्तव्यसनान्यपि। वजयत् यः सः सागारो भवेद् दार्शनिकाह्वयः ॥
(गुणभूषणाचार्य : गुणभूषण श्रावकाचार, अध्याय 3, श्लोक -4 )

जो जीव पांच उदुम्बर फलों का और सातों ही व्यसनों का त्याग करता है, वह दार्शनिक श्रावक है।

अष्टमूलगुणोपेतो द्यूतादि व्यसनोज्झितः । नरो वर्शनिकः प्रोक्तः स्याच्चेत्सद्दर्शनान्वितः ॥
(पाण्डे राजमल्ल : लाटी संहिता, प्रथम सर्ग, श्लोक - 61)

जो मनुष्य सम्यग्दर्शन सहित अष्ट मूलगुणधारी एवं सप्त व्यसनों का त्यागी हो, उसे दार्शनिक श्रावक या दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक कहा गया है।

मद्य-मांस-मधु रात्रिभोजन क्षीरवृक्ष फल वर्जनं त्रिधा ।।कुर्वते व्रतजिघृक्षया बुधास्तत्र पुष्यति निवेशते व्रतम् ।।
(आचार्य अमितगति : अमितगति श्रावकाचार, पंचम परिच्छेद, श्लोक -1)

चतुर जन मद्य-मांस-मधु, रात्रि भोजन और क्षीरीवृक्षों का मन-वचनकाय से त्याग करते हैं; क्योंकि इनके त्याग करने से व्रत परिपुष्ट होते हैं, धर्म धारण की पात्रता प्रगट होती है।

उपर्युक्त श्रावकाचारों के अतिरिक्त 9वीं सदी का वरांगचरित, 12वीं सदी का पूज्यपाद श्रावकाचार, 15वीं सदी का प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, 16वीं सदी का धर्मसंग्रह श्रावकाचार एवं व्रतोद्योतन श्रावकाचार, 17वीं सदी का श्रावकाचार सारोद्धार आदि और भी अनेक श्रावकाचार हैं, जिनमें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्षरूप से मद्य-मांस-मधु, पाँच उदुम्बर फलों एवं सप्त व्यसनों के त्यागरूप मूलगुणों के उल्लेख हैं।

इसप्रकार हम देखते हैं कि जैन वाङ्गमय में चरणानुयोग का ऐसा कोई शास्त्र नहीं, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से श्रावक के आठ मूलगुणों की चर्चा न हो तथा इन आठों मूलगुणों में ही श्रावक के योग्य स्थूलरूप से अहिंसक आचरण को सम्मिलित न किया गया हो।

तात्पर्य यह है कि सभी श्रावकाचारों में अहिंसक आचरण की मुख्यता से ही आठ मूलगुणों का विधान किया गया है। यद्यपि आचार्यों द्वारा मूलगुणों की आठसंख्या को कायम रखने के प्रयास किए गए, पर अन्ततः वह निर्वाह हो नहीं सका। कहीं-कहीं 6, 7, 9 एवं 12 संख्या भी हो गई। फिर भी अधिकांश आचार्यों ने सभी प्रकार के अहिंसाप्रधान दैनिक आचरण को मूलगुणों में अन्तर्भूत करने के प्रयास किये हैं। कि 15 उपर्युक्त मूलगुणों का समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए राजवार्तिक के हिन्दी टीकाकार ने अपना निम्नांकित मन्तव्य प्रगट किया है-

'किसी शास्त्र में तो पाँच अणुव्रत व मद्य-मांस-मधु के त्यागरूप आठ मूलगुण कहे हैं तथा किसी शास्त्र में तीन प्रकार के मद्य-मांस-मधु व पाँच उदुम्बर फल (बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर व पाकर) के त्याग को अष्ट मूलगुण कहे। किसी-किसी अन्य शास्त्रों में अन्य प्रकार के मूलगुण कहे। सो यह तो विवक्षा का भेद है। वहाँ ऐसा समझना कि स्थूलरूप से पाँच पापों का ही त्याग कराया है।

पाँच उदुम्बर फलों के त्याग में द्वि-इन्द्रिय आदि त्रस जीवों के भक्षण का त्याग हुआ, शिकार के त्याग में भी त्रसजीवों को मारने का त्याग हुआ। चोरी तथा परस्त्री के त्याग में भी अचौर्य व ब्रह्मचर्य व्रत हुए। जुआ आदि दुर्व्यसनों के त्याग में असत्य का त्याग हुआ तथा परिग्रह की अतिचाह मिटी। मद्य, मांस व शहद के त्याग में भी त्रस जीवों की हिंसा का त्याग हुआ।

इसप्रकार जहाँ मद्य-मांस-मधु के साथ पाँच उदुम्बर फलों के त्याग की बात कही है, वहाँ पाँचों पापों का त्याग भी अनुक्तरूप से आ ही गया है और जहाँ पाँचों पापों के स्थूल त्याग की बात तो कही; पर पाँच उदुम्बर फलों के त्याग की बात नहीं कही, वहाँ भी पंच उदुम्बर फलों का त्याग भी अनकहे आ ही गया; क्योंकि जिसने पापों के त्याग में हिंसा का त्याग कर दिया, वह त्रस जीवों से भरे पंच उदुम्बर फल कैसे खा सकता है?

इसीप्रकार सप्तव्यसन, रात्रि भोजन, बिनाछना जल आदि के संदर्भ में भी समझ लेना चाहिए। इन सप्त व्यसनादि की चर्चा आगे प्रथक से भी की गई है। विशेष जानकारी के लिए उन प्रकरणों को अवश्य पढ़ें।

मूलगुणों के विभिन्न कथनों का समन्वय

विक्रम की दूसरी सदी से उन्नीसवीं सदी तक जिनागम में जो विविध रूपों में अष्ट मूलगुणों की चर्चा हुई है, उनमें से वर्तमान में पुरुषार्थसिद्धयुपाय एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में उल्लिखित मद्य-मांस-मधु व पाँच उदुम्बर फलों के त्याग तथा मद्य-मांस-मधु व पाँचों पापों के स्थूल त्यागरूप अष्ट मूलगुण ही अधिक प्रचलित हैं; क्योंकि जनसाधारण में चरणानुयोग के ग्रन्थों में ये दोनों ग्रन्थ ही सर्वाधिक स्वाध्याय व पठन-पाठन में रहे हैं। दूसरे, जहाँ हिंसा के त्याग का नियम ले लिया गया हो, वहाँ कोई हिंसा के आयतन रात्रि भोजन, अनछना जल आदि का उपयोग भी कैसे कर सकता है? अतः अन्य मनीषियों द्वारा प्रतिपादित विविध मूलगुण भी इन्हीं में अन्तगर्भित हो जाते हैं। इसकारण वे अचर्चित रह गये।

पुराण साहित्य में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले पद्मपुराण, महापुराण एवं हरिवंश पुराणों में आगत श्रावकाचार के प्रकरण में अष्ट मूलगुणों की जो चर्चा आई है, वहाँ भी देशकाल की परिस्थितियों के अनुसार मद्य-मांस-मधु के त्याग के साथ जुआ, रात्रि भोजन, वेश्या संगम एवं परस्त्री रमण के त्याग को भी अष्ट मूलगुणों में विशेषरूप से उल्लेख कर दिया गया है।

महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने आठ की संख्या कायम रखने के कारण मधु-मांस एवं पाँच उदुम्बर फलों के साथ हिंसा आदि पाँचों पापों को एक गिनकर आठ मूलगुण कहे हैं। ध्यान रहे, उन्होंने मद्यत्याग की जगह हिंसादि पापों के त्याग को स्थान दिया है।

इससे यह नहीं समझना चाहिये कि उन्हें मद्यत्याग कराना इष्ट नहीं है। मद्य तो सामाजिक दृष्टि से भी वर्जित है ही, अत: मद्य के कथन को गौण करके उसके स्थान पर पापों के त्याग को मुख्य किया है।

चामुण्डराय ने चारित्रसार में अपने देशकाल के अनुसार हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह के स्थूल तथा जुआ, मांस और मद्य सेवन के त्याग को अष्ट मूलगुण नाम दिया है। इसकारण इनके कथन में मधुत्याग गौण हो गया है।

यहाँ यह ज्ञातव्य है कि चारित्रसार का कथन मूलत: आदिपुराण से उद्धृत है, जो आचार्य जिनसेन का ही है। एक ही ग्रन्थ में दो जगह प्रकरण के अनुसार अलग-अलग कथन हैं। एक जगह मद्य के त्याग को गौण किया और दूसरी जगह मधु के त्याग को। इसी से स्पष्ट है कि उन्हें मद्य व मधु दोनों का ही त्याग इष्ट है।

प्रश्न - पाँच अणुव्रत तो दूसरी प्रतिमा में होते हैं, फिर उन्हें अव्रती श्रावक के अष्ट मूलगुणों में सम्मिलित क्यों किया गया?
उत्तर - व्यसनों के प्रकरण में जो चोरी एवं परस्त्री के त्याग की बात आई है, वहाँ पण्डित सदासुखदासजी ने स्पष्ट लिखा है कि 'जाके जिनधर्म की प्रधानता होय है ताकि चारित्र मोह के उदयतें त्याग, व्रत, संयम नाहीं होय तो हू अन्याय के धन में वांछा मत करो।’(रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषाटीका, पृष्ट-141 चतुर्थ अधिकार)

यही स्थिति मूलगुणों में आये पांचों पापों के त्याग के विषय में समझना चाहिए। भले ही उसे अभी व्रत संयम नहीं हुए हैं, पर जैनधर्म के श्रद्धानी के जीवन में लोकनिंद्य सामान्य पापाचार तो नहीं होना चाहिए। एतदर्थ ही पांचों पापों के स्थूल त्याग को मूलगुणों में रखा है।

यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिए कि मूलगुणों में जो पांच अणुव्रत कहे, उनमें अतिचार नहीं टल पाते हैं और व्रतप्रतिमा में पंचाणुव्रतादि बारहव्रत अतिचार रहित पूर्ण निर्दोष रीति से पालन होते हैं।

मूलगुणों का उपदेश आवश्यक क्यों ?

विक्रम की दूसरी सदी से अब तक स्वतंत्र या किसी ग्रन्थ के अंग के रूप में जैन साहित्य के इतिहास में विभिन्न नामों से लगभग चालीस श्रावकाचार उपलब्ध हैं, जो प्रकाशित भी हो चुके हैं। उनमें श्रावकों के आचरण का विस्तृत विवेचन है। प्रायः सभी में मद्य-मांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों के त्याग पर ही विशेष बल दिया गया है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि कहीं/कभी/कोई जैन श्रावकों का वर्ग विशेष मद्य-मांसमधुएवंपंच उदुम्बर फलों का सेवन करता होगा। यह तो जैनों की परम्परागत सनातन चली आई कुल की मर्यादा है कि किसी भी जैनकुल में कभी भी मद्य-मांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का सेवन नहीं होता; फिर भी यह जो अष्ट मूलगुण धारण करने-कराने का उपदेश दिया गया है, उसका मूल कारण यह है कि परम्परागत चली आई वह सुरीति सदैव अखण्डितरूप से चलती रहे। भूल से भी कभी कोई इस मर्यादा का उल्लंघन न करे। इस भावना से ही इनका प्रतिपादन होता रहा है और होता रहना चाहिए।

आजतक जो जैनों में मद्य-मांस-मधु व अभक्ष्य-भक्षण नहीं है, वह शास्त्रों के इन्हीं उपदेशों का सुपरिणाम है। यदि यह उपदेश इतने सशक्तरूप में जिनवाणी में न होता तो निश्चित ही जैन समाज में दुर्व्यसनों का कभी न कभी, कहीं न कहीं प्रवेश अवश्य हो गया होता।

अब तक जिसतरह बचे हैं, भविष्य में भी इसीतरह इन दुर्व्यसनों और हिंसक प्रवृत्तियों से समाज को बचाये रखना है; एतदर्थ आज भी सतत सावधान रहने की आवश्यकता है। अन्यथा इस भौतिक और भोगप्रधान युग में, जबकि सब ओर दुर्व्यसनों का बोलबाला है, जैन नवयुवकों को इनसे अछूता रख पाना असंभव नहीं तो कठिन तो हो ही जायेगा।

भले ही अबतक जैनकुल में परम्परागत कोई मांस न खाता-पीता हो, फिर भी उसके खतरे से सावधान करने हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य,खाद्य-अखाद्य, पेय-अपेय की चर्चा तो सदैव अविरलरूप से चलती ही रहना चाहिये। चर्चा से संपूर्ण वातावरण प्रभावित होता है। जो दुर्भाग्यवश इन दुर्व्यसनों में फंस गये हैं, उन्हें उससे उबरने का मार्ग मिल जाता है और जो अबतक बचे हैं, वे भविष्य के लिए सुरक्षित हो जाते हैं। उनकी आगामी पीढ़ियाँ भी इससे बची रहती हैं।
इसतरह इन उपदेशों और सामूहिकरूप से किए जा रहे प्रचार-प्रसार की उपयोगिता असंदिग्ध है।
पहले जमाने में भी जैनों में मद्य-मांस-मधु का सेवन नहीं था, फिर भी जैन वाङ्गमय में चरणानुयोग का ऐसा कोई शास्त्र नहीं है, जिसमें श्रावक के लिए आठ मूलगुणों के धारण करने व सात व्यसनों के त्याग का उपदेश न हो।

पर अब तो जैनकुलों में जो विगत हजारों वर्षों में नहीं हुआ, वह भी होता दिखाई देता है।

पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिक सभ्यता की इस दौड़ में पंचसितारा (फाइव स्टार) होटलों के प्रताप से आज धनिक नवयुवकों में तो मांस के सेवन की शुरुआत हो चली है। ऐसी स्थिति में उन्हें मार्गदर्शन देने की एवं ऐसा वातावरण बनाने की महती आवश्यकता है।

जो व्यक्ति इन अखाद्य-भोजन और अपेय-पेय को हृदय से बुरा मानते हैं, वे तो इन्हें खाते-पीते हुए भी समाज और परिवार से मुँह छिपाते हैं, शर्म महसूस करते हैं,खेद प्रकट करते हैं, वेस्वयं अपराध बोध अनुभव करते हैं; अत: उन्हें तो फिर भी सुलटने के अवसर हैं। पर जो लोग इसे सभ्यता और बड़प्पन की वस्तु मान बैठे हैं, बड़े और पढ़े-लिखे होने का मापदंड समझ बैठे हैं। उनकी स्थिति चिंतनीय है। ऐसे लोगों को मद्यमांसादिके सेवन से होनेवाली हानियों का यथार्थज्ञान हो तथा उनके हृदय में करुणा की भावना जगे, उनमें मानवीय गुणों का विकास हो, वे सदाचारी बनें; एतदर्थ भी इसकी सतत चर्चा आवश्यक है, अनिवार्य है।

आज तो यहाँ उलटी गंगा बह रही है। जहाँ पाश्चात्य देशों में मद्यमांस का बाहुल्य था, वे दिनों-दिन शाकाहार की ओर बढ़ रहे हैं और भारत, जो ऋषियों-मुनियों का देश कहा जाता है, शुद्ध सात्त्विक शाकाहार ही जिसका मुख्य आहार रहा है, वह पश्चिमी सभ्यता की देखा-देखी मद्य-मांस की ओर अग्रसर हो रहा है।

हमें अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए एकबार पुन: अपने ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों द्वारा प्रतिपादित मूलगुणों के विभिन्नरूप एवं उनका समन्वयात्मक दृष्टिकोण समझकर उन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा; तभी हम सच्चे श्रावक बन सकेंगे।

मूलगुणों का वर्गीकरण

विक्रम की दूसरी सदी से लेकर अब तक के श्रावकाचारों में उपलब्ध मूलगुणों की विविध व्याख्याओं का वर्गीकरण आठ वर्गों में हो जाता है, जो इसप्रकार है -

  1. मद्य-मांस-मधु और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग।इस वर्गीकरण के प्रतिपादक आचार्यों में आचार्य अमृतचन्द्र, पद्मनन्दि, सोमदेव, देवसेन, पण्डित आशाधर एवं पाण्डे राजमल्ल प्रमुख हैं।
  2. मद्य-मांस-मधु एवं पाँचों पापों का स्थूल त्याग। इस वर्ग के समर्थक आचार्य समन्तभद्र एवं शिवकोटि हैं।
  3. मधु-मांस का त्याग, पाँचों पापों से विरति एवं जुआखेलने का त्याग। इस वर्ग के प्रतिपादक आचार्यों में महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन (द्वितीय) प्रमुख हैं।
  4. पाँच उदुम्बर फल, सात-व्यसन, अचार-मुरब्बा तथा फूल व फलों से बने गुलकन्द आदि का त्याग। इसके प्रतिपादक आचार्य वसनन्दि हैं।
  5. मद्य-मांस-मधु पाँच उदुम्बर फल एवं रात्रिभोजन त्याग। इस वर्ग के प्रतिपादकों में आचार्य अमितगति मुख्य हैं।
  6. मद्य-मांस-मधु, जुआ खेलना, वेश्यागमन एवं रात्रिभोजन त्याग। इस वर्ग के प्रतिपादक हैं पद्मपुराण के कर्ता आचार्य रविषेण।
  7. हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन (प्रथम) ने रविषेणाचार्य द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त मूलगुणों में अनन्तकायवाले कंदमूलों के त्याग का विधान और कर दिया।
  8. पाँच उदुम्बर फल एवं सात व्यसनों का त्याग। इस वर्ग के प्रतिपादक आचार्य गुणभूषण हैं।

इसप्रकार उपर्युक्त अध्ययन से यह तो स्पष्ट हो ही गया कि मद्य-मांसमधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो सबको इष्ट है ही, साथ ही अपनेअपने देश-काल व परिस्थितियों के अनुसार जब/जहाँ/जिस पाप की प्रचुरता या दुर्व्यसनों का इतना बाहुल्य देखा गया कि उनके त्यागे बिना धर्मश्रवण वग्रहण की पात्रता ही नहीं आती, तो उनके त्याग की अनिवार्यता देखकर उन्होंने उन प्रवृत्तियों के त्याग पर विशेष बल दिया है।

वैसे अष्ट मूलगुणों में उन सब उक्त-अनुक्त पापों का त्याग तो अन्तर्गभित है ही, जो श्रावकधर्म के मूल आधार हैं, पर वर्तमान समय को देखते हुए आचार्यों द्वारा प्रतिपादित पाक्षिक श्रावकों के कर्तव्यों में कुछ महत्त्वपूर्ण कर्तव्य इसप्रकार हैं -

  1. मधु-मांस और मद्य आदि सभी प्रकार की मादक वस्तुओं का त्याग।
  2. रात्रि में अन्नाहार का त्याग।
  3. कंदमूल और उदुम्बर फलों का त्याग।
  4. बिना छने जलपान का त्याग।
  5. बाजारू अपेय एवं अखाद्य पदार्थों का त्याग।
  6. जुआ आदि सप्त व्यसनों का त्याग।
  7. द्विदल आदि अभक्ष्य-भक्षण का त्याग।
  8. सामान्य स्थिति में प्रतिदिन देवदर्शन और सुबह-शाम स्वाध्याय करने का नियम।
  9. वीतरागी देव, निर्ग्रन्थगुरु और अहिंसामय धर्म में दृढ़ श्रद्धा।

इन उपर्युक्त कर्तव्यों के पालन किए बिना सच्चा पाक्षिक श्रावकपना भी नहीं होता।

श्रावकधर्म प्रतिपादन के प्रकार

मूलगुणों के संदर्भ में उपर्युक्त अध्ययन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि उपलब्ध जैन वाङ्गमय में श्रावकधर्म का वर्णन मुख्यत: तीन प्रकार से मिलता

  1. ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर ।
  2. बारह व्रतों को एवं सल्लेखना को आधार बनाकर।
  3. पक्ष, चर्या और साधन को आधार बनाकर।

इन तीनों प्रकारों में प्रथम प्रकार के आधार पर प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामीकार्तिकेय और आचार्य वसुनन्दि प्रमुख हैं, जिन्होंने अपने ग्रन्थों में ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन किया है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने यद्यपि श्रावकधर्म के प्रतिपादन में कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं लिखा, फिर भी चारित्रपाहड़ में श्रावकधर्म का वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर किया है। यह वर्णन अति संक्षिप्त होने पर भी अपने आप में पूर्ण है।

स्वामी कार्तिकेय ने भी श्रावकधर्म पर कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं रचा, पर ‘स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा’ में धर्मभावना के अन्तर्गत श्रावकधर्म का सविस्तार वर्णन किया है। इन्होंने भी बहुत स्पष्टरूप से ग्यारह प्रतिमाओं को ही आधार बनाया है।

इसके बाद के आचार्य वसुनन्दि ने भी इन्हीं का अनुसरण किया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन तीनों ही आचार्यों ने मूलगुणों का वर्णन ही नहीं किया।

दूसरे प्रकार में बारह व्रतों को आधार बनाकर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों में स्वामी समन्तभद्राचार्य प्रमुख हैं।

आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकधर्म का वर्णन बारह व्रतों के आधार पर ही किया है। अत: व्रतों के बीच में तो वे मूलगुणों का वर्णन कैसे करते? पर वे मूल गुणों का उल्लेख किये बिना नहीं रह पाये; अत: उन्होंने तीसरे अध्याय के अन्त में बिना प्रसंग के ही एक श्लोक में मूलगुणों का नाम मात्र उल्लेख कर दिया।

उसमें उन्होंने मद्य-मांस-मधु के साथ पांच उदुम्बर फलों के त्याग को न कहकर पांच पापों के त्याग की बात कही; क्योंकि पांच पापों के स्थूल त्याग बिना उन्हें मूलगुण मूलगुण से ही नहीं लगे।

यद्यपि उन्होंने स्वयं कोई टिप्पणी नहीं की, कोई खुलासा भी नहीं किया; पर उन्हीं के अनन्यतम शिष्य आचार्य शिवकोटि के निम्नांकित कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि उस समय पंच उदुम्बर फलों के त्याग की बात भी मूलगुणों के संदर्भ में चलती थी, जिसका बाद के आचार्यों ने उल्लेख कर दिया।

आचार्य शिवकोटि लिखते हैं कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो अबोध बालकों या अज्ञ पुरुषों के भी होता है, विवेकी जन के तो पांचों पापों का स्थूल त्याग भी होना ही चाहिए।

इस कथन से भी यह बात सिद्ध होती है कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो गृहस्थ की प्राथमिक भूमिका में ही हो जाना चाहिए। भले ही उनका वर्णन चारित्र के प्रकरण में ही क्यों न आया हो?

श्रावकधर्म के प्रतिपादन का तीसरा प्रकार है - पक्ष, चर्या और साधन - इस आधार पर श्रावकधर्म का प्रतिपादन करनेवाले आचार्य जिनसेन (द्वितीय) हैं। यद्यपि इन्होंने भी श्रावकाचार पर कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं लिखा, पर महापुराण के 39 एवं 40वें पर्व में उन्होंने पक्ष चर्या व साधनरूप से श्रावकधर्म का निरूपण किया है, जो संक्षेप में इसप्रकार है -

  • पाक्षिक- जिसे अरहंत देव का पक्ष हो, जो जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य देवको, निर्ग्रन्थ गुरु के सिवाय किसी अन्य गुरु को और वीतरागधर्म के सिवाय किसी अन्य सरागधर्मको न माने, उसे पाक्षिक श्रावक कहते हैं।
  • नैष्ठिक- जो श्रावक के बारह व्रतों एवं ग्यारह प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है एवं न्यायपूर्वक आजीविका करता है, उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं।
  • साधक- जो जीवन के अन्त में काय को कश करने के साथ विषयकषायों को क्रमशः कम करता हुआ आहार आदि सरिंभ को छोड़कर परम समाधि का साधन करता है, वह साधक श्रावक है।

आचार्य जिनसेन के पश्चात् पण्डित आशाधरजी ने तथा अन्य विद्वानों ने इन तीनों को ही आधार बनाकर श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया है।
उपर्युक्त तीनों प्रकारों में जिन्होंने 11 प्रतिमाओं और 12 व्रतों को श्रावकधर्म के निरूपण का आधार बनाया है, उनमें अधिकांश ने तो अष्ट मूलगुणों की चर्चा ही नहीं की और जिन्होंने प्रसंगवश की है, उन्होंने व्रतप्रतिमा के साथ जहाँ-जैसा प्रसंग आया, वहाँ वैसी चर्चा कर दी।

उदाहरणार्थ समन्तभद्र को ही लें। रत्नकरण्डश्रावकाचार के तृतीय अध्याय में जब वे देशचारित्र का वर्णन कर चुके, तब बिलकुल अन्त के 66वें श्लोक में आठ मूलगुणों के नाम मात्र गिना दिये। उन्होंने भी मद्यमांस-मधु के साथ उन्हीं पांचों पापों के त्याग को सम्मिलित किया, जिनका अणुव्रतों में भी निषेध कर आये हैं।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इन मूलगुणों का धारण अणुव्रतों के बाद या साथ होता है तथा पाँच उदुम्बर फल उनकी दृष्टि में अभक्ष्य त्याज्य नहीं थे। इन्हें तो उन्होंने जैनमात्र के लिए जन्म से ही सर्वथा त्याज्य माना है, अत: उनकी यहाँ चर्चा करना भी ठीक नहीं माना। मद्य-मांसमधु के त्याग की जो बात की है, वह भी इनके परोक्षरूप से लगनेवाले अतिचारों-दोषों से दूर रहने की बात है, प्रत्यक्ष मांसादि का त्याग तो जन्म ही से है।

जिन आचार्यों ने श्रावक के मूलगुणों के वर्णन में अष्ट मूलगुणों की चर्चा नहीं की, उनकी दृष्टि में भी मद्य-मांस-मधु आदि प्रथम भूमिका में ही त्याज्य हैं, क्योंकि मूलगुण कहते ही उसे हैं, जिनके धारण बिना श्रावकपना ही संभव नहीं है। जो धर्मतत्त्व को स्वयं सुनता हो, जैनधर्म में पूर्ण श्रद्धा रखता हो तथा सदाचारी हो, उसे श्रावक कहते हैं।

(श्रृणोति धर्मस्तत्वं यः परान् श्रावयति श्रुतं। श्रद्धावान जैनधर्मे सः सत्क्रिया श्रावको बुधः।।
-शुद्ध श्रावक धर्म प्रकाश 143)

इसी भाव को पल्लिवित करते हुए और भी कहा है -

श्रद्धालुतां श्राति श्रृणोति शासनं दीने वपेदाशुवृणोतिदर्शनः ।
कर्तृत्व पुण्यानि करोति संयम तंश्रावकं प्राहरमी विच्छणाः ॥

जो श्रद्धालु होकर जैनशासन को सुने, दान दे, सम्यग्दर्शन को वरण करे, सुकृत व पुण्य के कार्य करे, संयम का आचरण करे, उसे विचक्षण जन श्रावक कहते हैं।
प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव के दर्शन करना, जल छानकर पीना और रात्रि में भोजन नहीं करना-ये तीन श्रावक के मुख्य बाह्य चिह्न हैं।
(धेयं सदा जिनदेव दर्शनं पेय पयः पट गालितं सदा।
हेयं निशायां खलु भोजनं हृदा एतानि चिह्नानि भवन्ति श्रावके।)
]

जो श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करता है, सुपात्रों को दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।

(जिनपूजा मुनिदानं करेइ जो दोइ सत्ति रूपेण।
सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्ख मग्गरओ॥)

अष्ट मूलगुणों के धारी सामान्य श्रावक की सच्चे देव-शास्त्र-गुरु में अटूट श्रद्धा होती है। वह मद्य-मांस-मधु व पाँच पापों के स्थूल त्याग के साथ दुर्गति के कारणभूत गृहीत मिथ्यात्व का भी त्याग कर देता है; अत: वह रागी-द्वेषी देव, सग्रंथगुरु एवं उनके उपासकों की पूजा-उपासना एवं वन्दना नहीं करता। सच्चे धर्म का पक्ष मात्र होने से उसे पाक्षिक श्रावक भी कहते हैं।

(जघन्य: पाक्षिकश्चायं धत्ते मूलगुणाष्टकम्।
जहाति सर्व मिथ्यातं दुर्गति दुख दायकम् ।।)

श्रावक के छह आवश्यक कर्तव्यों में सत्पात्र दान और जिनेन्द्र पूजा को मुख्य कर्त्तव्य कहा गया है। जैसा कि रयणसार में कहा है -

’दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो न तेण बिणा’

यद्यपि पाक्षिक श्रावक किसी व्रत का पालन नहीं करता, इस कारण वह अव्रती है, पर जिनधर्म का पक्ष होने से वह श्रावक के मूलगुणों का पालन अवश्य करता है। मूलगुणों का पालन किए बिना कोई नाममात्र से भी श्रावक नहीं कहला सकता।

कषायपाहुड़, अमितिगति श्रावकाचार एवं सागार धर्मामृत में भी इसी बात को पुष्ट करते हुए दान, पूजा, शीलव उपवास को भी श्रावक का मुख्य कर्त्तव्य कहा है।

विक्रम संवत् की सत्रहवीं सदी के मनीषी और अध्यात्मरसिक पाण्डे राजमल्लजी ने भी ग्यारह प्रतिमाओं के प्रकरण में दर्शनप्रतिमा के अन्तर्गत अष्ट मूलगुणों की चर्चा की है। वे लिखते हैं -

जो मनुष्य सम्यग्दर्शन सहित अष्ट मूलगुणों का धारी एवं सप्त व्यसन का त्यागी हो, उसे दार्शनिक श्रावक कहा गया है।(लाटी संहिता प्रथम सर्ग, श्लोक-6)

यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भले ही पाण्डे राजमल्लजी ने अष्ट मूलगुणों की चर्चा दर्शनप्रतिमा के प्रकरण में की है, पर उनकी यह पक्की मान्यता है कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो जैनकुल में जन्में व्यक्ति के होता ही है। जैसा कि उनके निम्नांकित श्लोक से स्पष्ट है -

मद्यं मांस तथा क्षौद्रमथोदुम्बरपञ्चकम् ।
वर्जयेच्छ्रावको धीमान् केवलं कुलधर्मविद् ॥

केवल अपने कुलधर्म की मर्यादा को जाननेवाले श्रावकों को भी मद्यमांस-मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो करना ही चाहिए।(लाटी संहिता प्रथम सर्ग, श्लोक -7)

यद्यपि पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक के छठवें अध्याय में कुल द्वारा गुरुपने मानने को मिथ्याभाव कहा है, पर वह अपेक्षा जुदी है
और पाण्डे राजमल्लजी ने जो उपर्युक्त श्लोक में मद्य-मांस-मधु के त्यागको कुलधर्म की संज्ञा देकर इन्हें त्यागने की प्रेरणा दी है-यह अपेक्षा जुदी है। दोनों में जमीन-आसमान जैसा महान अन्तर है।

पण्डित टोडरमलजी ने जहाँ /जिस प्रकरण में कुल धर्म का निषेध किया है, वहाँ तो अत्यन्त स्पष्टरूप से अन्य मतावलम्बियों की कुल परम्परा से गुरुपना मानने संबंधी उस मान्यता का निषेध किया है, जिसमें वे हीन आचरण करते हुए भी अपने को केवल कुल द्वारा गुरु मानते व मनवाते हैं।
वहाँ उनका कहना है कि हमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिए हम सबके गुरु हैं। पर कुल की उच्चता तो धर्म साधन से है। यदि कोई उच्च कुल में जन्म लेकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च कैसे मानें? आदि।

और यहाँ लाटी संहिता में पाण्डे राजमल्लजी का कहना तो यह है कि मद्य-मांस-मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग तो जैन कुल में जन्म से ही होता है; अत: इस कुल की मर्यादा का निर्वाह तो प्रत्येक जैन को हर हाल में करना ही चाहिए।

उक्त सन्दर्भ में प्रश्नोत्तर शैली में किया गया उनका निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -

ननु साक्षान्मकारादित्रयं जैनो न भक्षयेत् ।
तस्य किं वर्जनं न स्यादसिद्धः सिद्धसाधनात् ॥

कदाचित् यहाँकोई प्रश्न करे-शंका प्रगट करे कि-जब कोई भी जैनी साक्षात् मद्य-मांस-मधु का सेवन करता ही नहीं है तो क्या इतने मात्र से ही जैनों के इन आठों का त्याग सिद्ध नहीं होता? इसप्रकार सिद्ध साधन होने से इन वस्तुओं को त्याग करानेवाला यह उपदेश क्या निरर्थक नहीं है? (लाटिसंहिता प्रथम सर्ग, श्लोक - 8)

इसका समाधान प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं-

मैवं यस्मादतीचाराः सन्ति तत्रापि केचनः ।
अनाचारसमानूनं त्याज्या धर्मार्थिभिः स्फुटम् ॥

नहीं, ऐसा नहीं है; क्योंकि यद्यपि जैनी इनका साक्षात् भक्षण नहीं करते, तथापि उनके कितने ही ऐसे अतिचार (दोष) हैं, जो अनाचार के समान हैं, इसलिए धर्मात्मा जीवों को उन अतिचारों का त्याग अवश्य करना चाहिए। (लाटिसंहिता प्रथम सर्ग, श्लोक - 9)

उदाहरणार्थ (1) चमड़े के पात्र में रखे घी, तेल, पानी आदि अखाद्य-पदार्थ, अपेय-पदार्थ, विधे हुए-घुने हुए अनाज, जिनमें त्रसजीव पैदा हो जाते हैं, इन सब में मांस खाने का दोष है क्योंकि इनमें त्रसजीवों का मांस मिला होता है।

(2) मूलगुणों में जो रात्रिभोजन त्याग को सम्मिलित किया गया है, उसके संबंध में भी लाटी संहिताकार का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है :

अस्ति कश्चित् विशेषोऽत्र स्वल्पाभासोर्थतो महान् ।
सातिचारोऽत्र दिग्मात्रे तत्रातीचारवर्जिताः ||4||

मूलगुणों के धारण करने में जो रात्रिभोजन का त्याग है, वह अतिचार सहित है, उसमें अतिचारों का त्यागशामिल नहीं है, जबकि रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा में अतिचार रहित त्याग होता है।(लाटीसंहिता प्रथम सर्ग, श्लोक - 41)

मूलगुणों में रात्रिभोजन त्याग की सीमा का उल्लेख करते हुए कहा है कि -

निषिद्धमन्नमात्रादि स्थूलभोज्यं व्रते दृशम् ।
अनिषिद्धं जलायत्र ताम्बूलाद्यपि का निशि ॥

इस व्रत में रात्रि में केवल अन्नादि स्थूल भोजनों का त्याग है, इस भूमिका में पाग, जल तथा औषधि आदि का त्याग नहीं है। (लाटीसंहिता प्रथम सर्ग, श्लोक-42 )

पद्मनन्दिपंचविंशतिका में कहा है कि -

देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिने-दिने ।

श्रावक को देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान - ये षट्कर्म प्रतिदिन करने योग्य हैं।

पाक्षिक श्रावक का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए सागारधर्मामृत के तृतीय अध्याय में कहा है कि कृष्ण,नील,कापोत-इन तीन अशुभ लेश्याओं(कषाय अनुरंजित आत्मा का परिणाम लेश्या है।) में किसी एक के वेग से जो यदा-कदा इन्द्रियों के विषयों में उत्कंठित हो जाने के कारण मूलगुणों से भी स्खलित हो जाता है, फिर भी धर्म का पक्ष नहीं छोड़ता, वह गृहस्थ पाक्षिक श्रावक है।

सामान्यरूप से तो पाक्षिक श्रावक में सामान्य श्रावक के सभी लक्षण पाये ही जाते हैं।

भले ही सम्यग्दृष्टि इन्द्रियभोगों और त्रस-स्थावर हिंसा से सम्पूर्णत: विरक्त नहीं है, पर जिनधर्म का श्रद्धानी होने से उनमें प्रवृत्त एवं अनुरक्त भी नहीं रहता। जो भी प्रवृत्ति देखी जाती है, उसमें उसे खेद वर्तता है, त्यागने की भावना रहती है।

पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के 77वें श्लोक में कहा है कि सामान्य श्रावकको भी अत्यावश्यक - अनिवार्य एकेन्द्रिय जीवों के घात के सिवाय अवशेष एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए और खरकर्म( प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करनेवाला व्यापार खरकर्म कहलाता है। खरकर्म अर्थात् क्रूर व्यापार। जिनमें अधिक स्थावरों की हिंसा हो वह भी) आदि सावध कर्म तो कभी करना ही नहीं चाहिए।

सावध का सामान्य अर्थ है हिंसाजनक प्रवृत्ति । यद्यपि पूजा एवं जिनमंदिर का निर्माण आदि कार्य भी सावध है, पर ये धर्म के सहकारी व आयतन होने से कथंचित ग्राह्य कहे गये हैं; परन्तु खरकर्म आदि जोलौकिक सावध व्यापार है, जिनमें बहुत जीवघात होता है, वेतो सर्वथा त्याज्य ही पाक्षिक श्रावक जिनेन्द्रदेव संबंधी आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य-मांस-मधु और पंच-उदुम्बर फलों को छोड़ देता है। अपनी शक्ति को नहीं छिपानेवाला यह पाक्षिक श्रावक पाप के भय से स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के त्याग का अभ्यास करता है। यह पाक्षिक श्रावकदेवपूजा आदि श्रावक केषट् आवश्यककर्त्तव्यों को शक्ति के अनुसार नित्य करता है। सामान्यत: रात्रिभोजन का त्यागी होता है, परन्तु कदाचित् रात्रि में ताम्बूल लवंगादि ग्रहण कर लेता है। आरंभ आदि में संकल्पी हिंसा नहीं करता।

सावयधम्म दोहा के 242वें दोहे में कहा गया है कि पाक्षिक श्रावक मद्य-मांस-मधु का परिहार करता है, पंच-उदुम्बर फलों को नहीं खाता, क्योंकि इन आठों के अन्दर भारी त्रसजीव उत्पन्न होते हैं। । उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि मुलगुणों का कथन भले ही चारित्र के प्रकरण में किया गया हो, पर ये होते तो अव्रती की प्राथमिक भूमिका में ही हैं। इस कारण यद्यपि ये मूलगुण संयम या चारित्र नहीं हैं, फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं और अत्यन्त आवश्यक हैं।

मद्य-त्याग

गुड़, जौ, महुआ, द्राक्ष आदि अनेक वस्तुओं को सड़ाकर मद्य बनती है। वस्तुओं को सड़ाने से उसमें असंख्य कीटाणुओं की उत्पत्ति हो जाती है। इसप्रकार मद्य अगणित जीवों का पिण्ड मात्र है। मद्यपान करने से उनकी दर्दनाक मौत का महापाप मद्यपान करनेवाले को लगता है, जिसका फल नरक-निगोद है।

मद्यपान से न केवल पाप होता है, साथ में इस मद्य के सेवन से सर्वप्रथम तो बुद्धि भ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्ट होने से व्यक्ति विवेकशून्य हो जाता है। मद्य कामोत्तेजक होती है, इसे पीनेवाला कामासक्त हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह अन्याय-अनीति रूप क्रियाएँ करने लगता है। इससे उसे संसार में सदा संक्लेश और दुःख उत्पन्न होता है।(लाटी संहिता प्रथमसर्ग : श्लोक 67 & 70)

मद्यपान करनेवाले की प्रतिष्ठा तो धूल-धूसरित होती ही है,स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

मद्यपान करनेवाला व्यक्ति नशे में अपने हृदय के सब भावों को लीलामात्र में ही प्रगट कर देता है। मद्यपान से मनुष्य की कान्ति, कीर्ति, बुद्धि और नानाप्रकार की सम्पत्ति क्षणमात्र में विनाश को प्राप्त हो जाती है।

जोमदिरा इन्द्रियों केसम्पूर्ण विकासको रोक देती है, शरीर में शिथिलता उत्पन्न करती है और चेतनता को निर्दयतापूर्वक हर लेती है - ऐसी मदिरा क्या विष के समान नहीं है?

यह सुरा सैकड़ों पापों की जड़ है, इसका सेवन मन को विमोहित कर देता है। विमोहित चित्तवाला पुरुष सभी शुभकार्य करना छोड़ देता है, धर्म को छोड़ देता है, जीवघात करने लगता है। इसतरह पाप में प्रवृत्त हुआ प्राणी मरकर नरक में चला जाता है, नारकी बन जाता है।(श्रावक सारोद्धार तृतीय परिच्छेद श्लोक 12 एवं 15)

नीतिशास्त्र कि प्रसिद्ध ग्रन्थ नीति वाक्यामृत’ में कहा है कि- “शराबी मनुष्य मानसिक भ्रम के कारण अपनी माँ को भी सेवन करने में तत्पर हो जाता है।"

शराब के त्याग की प्रेरणा देते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि - मदिरा मन के मोह का कारण होने से, सांसारिक आपदाओं का आलय होने से एवं लोक व परलोक में दोष कारक होने से मानव को इस मद्यपान का सदैव के लिए त्याग करना चाहिए।(श्रावक सारोद्धार, श्लोक - 17 व 21)

आगे कहते हैं कि मद्य न केवल मादक है, अपितु वह हिंसामूलक भी है और आत्मा का पतन करनेवाली भी है।

इस शराब के पीने से उसमें उत्पन्न हुए जीवों के समूह तत्काल मर जाते हैं तथा काम, क्रोध, भय, भ्रम आदि पाप बढ़ानेवाले परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी शराब का पीना तुरंत छोड़ देना चाहिए।

आचार्य अमृतचंद्र भी यही कहते हैं -

मद्यं मोहयति मनो मोहित चित्तस्तु विस्मृतं धर्मम् ।
विस्मृतधर्मः जीवो हिंसामविशंकमाचरति ||62||
(पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक - 62)

मद्य मन को मोहित करती है, मोहित मनवाला धर्म को भूल जाता है तथा धर्म को भूला हुआ व्यक्ति निडर व निशंक होकर हिंसा में प्रवृत्त हो जाता है।
इसतरह मद्य के सेवन में कोई एक दो ही दोष हों - ऐसी बात नहीं है, यह तो दोषों का समुद्र है, हिंसा का आयतन है।

सागार धर्मामृत में कहा है कि मद्य में उत्पन्न होनेवाले रसज जीव सदा ही उत्पन्न होते रहते है और मरते रहते हैं। मद्य की एक-एक बूंद में मद्य के ही रूप-रस के धारक अनंतजीव होते हैं।

मद्य की एक बूंद में उत्पन्न होनेवाले जीव यदि संचार करें, फैल जावें तो समस्त तीनलोकरूप संसार को पूर देंगे- इसमें जरा भी संदेह नहीं है।

ऐसी मद्य को पीने से मद्य के सभी जीव तत्काल मृत्युको प्राप्त होते हैं। इसतरह मद्यपान करने से जो हिंसा होती है, उसके फल में उसे नियम से नीचगति ही प्राप्त होती है।

यदि स्वयं को दुर्गति के दुःखों में नहीं डालना हो तो मद्य को पीना तो दूर, उसे छूना भी नहीं चाहिए।

मद्य का व्यसन ऐसा दुर्व्यसन है कि जो इसे एकबार पकड़ लेता है, फिर यह उसे जीवनभर के लिए जकड़ लेता है। इससे घर-परिवार तो बिगड़ता ही है, कई पीढ़ियों तक इसका असर रहता है। जो स्वयं मद्य पीता हो, वह अपने पुत्र-पौत्रों को किस मुँह से मना कर सकता है। फिर उसकी गति साँपछछुन्दर जैसी हो जाती है। गले में अड़े छछुन्दर को साँपन निगल पाता है, न उगल पाता है, निगलता है तो पेट फटता है, उगलता है तो अंधा हो जाता है। यही स्थिति शराबी की होती है, पीना छोड़ भी नहीं पाता और ढंग से पी भी नहीं सकता। उसका शेष जीवन रोते-रोते पश्चात्ताप करते-करते ही बीतता है।

दुःख की बात तो यह है कि ऐसा कोई चलचित्र या टेलीविजन(टी.वी.) सीरियल नहीं होता, जिसमें येन-केन-प्रकारेण मदिरापान करते हुए न दिखाया जाये। चाहे खुशी का प्रसंग हो या खेद-खिन्नता का-दोनों ही दशाओं में शराबबीच में आये बिना नहीं रहती। यही कारण है कि इसका प्रचार-प्रसार दिनों-दिन बढ़ रहा है।

यद्यपि यदा-कदा इन टी.वी. और सिनेमा के माध्यमों से मद्यपान से होनेवाली हानि एवं बर्बादी के चलचित्र दिखाकर इससे बचाने/बचे रहने की प्रेरणा भी दी जाती है, पर साथ ही उसे ही परेशानियों से बचने का एकमात्र उपाय बताकर उसे प्रतिष्ठापित भी कर दिया जाता है, जो सर्वथा अनुचित है; क्योंकि यह तो परिस्थिति को पीछे धकेलना हुआ, इसमें समस्या का समाधान कहाँ है? इससे तो समस्याओं से जूझने की शक्ति व विवेक भी समाप्त हो जाता है।

लोग बुराई को जल्दी ग्रहण करते हैं, भले ही उसके प्रदर्शन का उद्देश्य पवित्र हो, पर उद्देश्य की गहराई तक कितने लोग पहुँच पाते हैं। अधिकांशतः तो उससे परिचित हो जाने से उसका दुरुपयोग ही करते हैं।

हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि मद्य सब बुराइयों की मूल जड़ है। सब पापों की अगुआ है; इसके सेवन से मनुष्य को हिताहित का ज्ञान नहीं रहता तथा हिताहित का ज्ञान न रहने से मानव संसाररूपी जंगल में भटकानेवाला कौन-सा पाप नहीं करता?(यशास्तलकचम्पू श्लोक 256, 257)

मद्येन यादवः नष्टा नष्टा द्यूतेन पाण्डवः ।
इति सर्वत्र लोकेस्मिन् सुप्रसिद्धं कथानकम् ॥

लोक में यह कथा प्रसिद्ध है कि मद्यपान से यादव बर्बाद हो गये और जुआ खेलने से पाण्डव।
जैनेतर धर्मग्रन्थों में भी मद्यपान का निषेध किया गया है। महाभारत में कहा गया है कि -

गौडी पेष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
यथैव एका तथा सर्वा न पातका द्विजोत्तमैः ।।

मद्य तीन प्रकार की होती है - गौडी, पेष्टी व माध्वी। इन तीनों में जैसी एक, वैसी ही सब । अत: ब्राह्मणों को यह सुरापान नहीं करना चाहिए।(महाभारत अध्याय 11 श्लोक 84)

इसी ग्रन्थ में आगे कहा है कि जो ब्राह्मण एकबार भी मद्य पीता है, उसका ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है, वह शूद्र हो जाता है।(महाभारत अध्याय 11 श्लोक 86)

मांस-त्याग

यह तो सब जानते ही हैं कि प्राणियों की हिंसा किए बिना मांस उत्पन्न नहीं होता। तथा यह भी सभी लोग अच्छी तरह समझते हैं कि प्राणिघात करना महापाप है, इससे स्वर्ग नहीं मिलता। इसलिए सुखाभिलाषी को मांस का खाना, खिलाना त्याग देना चाहिए।(ना कृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् । नच प्राणि बधात् स्वर्ग: तस्मात् मांस विबर्जयेत् ।। - उमास्वामी श्रावकाचार)

मांस के लिए जीवों को मारनेवाला, मांस का दान देनेवाला, मांस पकानेवाला, मांस खाने का अनुमोदन करनेवाला, मांसभक्षण करनेवाला मांस को खरीदने-बेचने वाला- ये सभी दुर्गति के पात्र हैं।(हंता दाता च संस्कर्ता अनयंता भक्षकस्तथा। क्रेता पलस्य विक्रेता य: स: दुर्गति भाजनं ।। - उमास्वामी श्रावकाचार)

जो मनुष्य अपने शरीर की पुष्टि की अभिलाषा से मांस खाते हैं, वस्तुतः वे ही प्राणियों के घातक हैं, क्योंकि मांस खानेवालों के बिना जीववध करनेवाला इस लोक में कभी कोई नहीं देखा गया।

मांस की माँग व पूर्ति ही जीव वध को बढ़ावा देती हैं। अत: मांसाहारी ही मूलत: जीव हिंसा के दोषी हैं।

जो व्यक्ति शरीर के पोषक सुखद सात्त्विक उत्तम अन्नाहार और फलाहार शाक-सब्जी आदि भोज्य पदार्थों को छोड़कर मांस खाने की इच्छा करते हैं, वे मानो हाथ में आये हुए अमृत रस को छोड़कर कालकूट विष को खाने की इच्छा करते हैं।

जो मनुष्य यह कहते हैं कि मांस खाने में कोई दोष नहीं है, वे लोग मनुष्य के रूप में भेड़िया, सिंह, गिद्ध, स्वान, व्याघ्र, श्रृगाल और भीलों की संख्या ही बढ़ा रहे हैं।(श्रावकाचार सारोद्धार, तृतीय परिच्छेद, श्लोक 27-31)

इसी संबंध में आचार्य अमृतचन्द्र का चिन्तन भी द्रष्टव्य है। वे लिखते हैं कि - प्राणिघात के बिना मांस की उत्पत्ति संभव नहीं है, अत: मांस को खानेवाले पुरुषों के अनिवार्यरूप से हिंसा होती ही है।

जो स्वयं ही अपनी मौत मरे हुए भैंस, बैल, गाय आदि पशुओं का मांस है, उसके सेवन में भी उस मांस के आश्रित रहनेवाले असंख्य-अनंत सूक्ष्म निगोदिया जीवों के विनाशसे हिंसा होती है।

कच्ची, पकी या पक रही मांस की पेशियों में उसी पशु की जाति के अनंत निगोदिया जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती है। अत: जो व्यक्ति कच्ची या पकी हुई मांसपेशी कोखाता हैया छूता भी है, वह अनेक कोटि जीवों का घात करता है। अत: मांस सर्वथा अभक्ष्य है।(आचार्य अमृतचन्द्र : पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक - 66, 68)

मांसस्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गन्धभरा है, दूसरों के प्राणघात से ही मांस का उत्पादन होता है तथा कसाई के घर जैसे दुःस्थान से प्राप्त होता है

और फलकाल में दुर्गति का कारण है। ऐसे मांस को भले आदमी कैसे खा सकते हैं?

जिस पशु-पक्षी को हम मांस खाने के लिए मारते हैं, यदि वह हमें दूसरे जन्म में न मारता होता, बदला न लेता होता तो भले हम पशु हत्या कर लेते अथवा मांस के बिना जीवन का अस्तित्व ही संभव न होता तो भी पशुहत्या करने का कुछ औचित्य समझ में आ सकता था; परन्तु ऐसी बात नहीं है। मांस के बिना भी हमारा जीवन चलता ही है और हम जिसकी हत्या करेंगे, अवसर आने पर वह भी हमारा मांस नोंच-नोंच कर खायेगा ही, फिर भी हम ऐसी मूर्खता क्यों करते हैं? यह बात गंभीरता से विचारणीय है।(यशस्तिलकचम्पू : उपासकाध्ययन, श्लोक 264-265)

श्रमणसंस्कृति के सिवाय वैदिक संस्कृति में भी मांसाहार को अभक्ष्य और अखाद्य तो बताया ही है, उसका निषेध भी किया है।

महाभारत समस्त हिन्दू समाज का अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है, उसमें मांसाहार का निषेध करते हुए कहा गया है कि -

यदि खादको न स्यात् न तदा घातको भवेत् ।
घातकः खादकार्थाय तद् घातयति वै नरः ॥

यदि कोई मांस खानेवालाही न हो तो कोई भी किसी बकरे, मछली, मुर्गे आदि को न मारे। मांस खानेवालों के लिए तो घातक यानि धीवर, खटीक व कसाई आदि पशु-पक्षियों और जीवजंतुओं को मारते हैं।

इस कारण मांस खानेवाला जीव हिंसा करनेवाले से भी अधिक पाप के फल का भागी है। यदि कोई मांस खायेगा ही नहीं तो बिना कारण कोई जीवों को क्यों मारेगा?

महाभारत के ही अनुशासनपर्व में इस संबंध में धर्मराज युधिष्ठिर और भीष्मपितामह का एक अत्यन्त प्रभावोत्पादक संवाद द्रष्टव्य है

युधिष्ठिर -हे पितामह! आपने बहुत बार कहा है कि अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। मैं जानना चाहता हूँ कि मांस खाने से क्या-क्या हानि होती है?

भीष्म-हे युधिष्ठिर! जो मनुष्य सुन्दर रूप, सुडौल शरीर, उत्तम बुद्धि, सत्त्व, बल और स्मरण शक्ति प्राप्त करना चाहता हो, उसे हिंसा का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। इस विषय में ऋषियों ने जो सिद्धान्त निश्चित किया है, वह बताता हूँ।

स्वयंभुव मनु का वचन है कि - जो मनुष्य न मांस खाता है, न पशु हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है वह सारे प्राणियों का मित्र है।

नारद ने कहा है कि - जो मनुष्य दूसरों के मांस से अपना मांस बढ़ाना चाहता है, उसे अवश्य दुःख उठाना पड़ता है।

बृहस्पति का कथन है कि - जो मनुष्य मधु और मांस त्याग देता है, उसे दान, यज्ञ और तप का फल मिलता है।

मांस घास, लकड़ी या पत्थर से नहीं निकलता। वह तो जीव हत्या से ही मिलता है; इसलिए उसे खाने में महानदोष है। जो लोग सदा मांस भक्षण करते हैं, उन्हें राक्षस समझना चाहिए। हिंसक लोग ही पशु-पक्षियों की हत्या करते हैं। यदि मांस को अभक्ष्य समझकर सव लोग उसे खाना छोड़ दें तो जीव-जन्तुओं की हत्या अपने आप बन्द हो जाये।

नियम पालन करनेवाले महर्षियों ने मांस-भक्षण के त्याग को धन, यश, आयु तथा स्वर्ग की प्राप्ति का प्रधान साधन बताया है।

हे युधिष्ठिर! पूर्वकाल में मैंने महर्षि मार्कंडेय से मांस भक्षण के जो दोष सुने हैं, उन्हें बताता हूँ।

जो मनुष्य जीवित प्राणियों को मारकर अथवा उसके मर जाने पर, उनका मांस खाता है; वह उन प्राणियों का हत्यारा ही माना जाता है। जो मांस खरीदता है, वह धन से; जो खाता है, वह उपयोगसे और जो मारनेवाला है; वह शस्त्र प्रहार करके पशुओं की हिंसा करता है। इसप्रकार तीन तरह से प्राणियों की हत्या होती है। जो स्वयं तो मांस नहीं खाता, परखानेवालों का अनुमोदन करता है, वह भी भावदोष के कारण मांसभक्षण के पाप का भागी होता है। इसीप्रकार जो मारनेवाले को प्रोत्साहन देता है, उसे भी हिंसा का पाप लगता है।

इसप्रकार विद्वानजन अहिंसारूप परमधर्म की प्रशंसा करते हैं। अहिंसा परमधर्म है, परमतप है और परमसत्य है। अहिंसा से ही धर्म उत्पन्न होता है।

मांसाहार का दुष्परिणाम बताते हुए वैष्णवधर्म के ही दूसरे ग्रन्थ ‘विष्णुपुराण’ में कहा गया है कि -

यावन्ति पशुरोमाणि पशुमात्रेषु भारत ।
तावद् वर्ष सहस्राणि पंचयते पशुघातकः ॥

हे राजन्! जो मनुष्य जिस पशु को मारता है, वह उस मरे हुए पशु के शरीर में जितने रोम हैं; उतने ही हजार वर्ष पर्यन्त नरक में दुःख भोगता है।

इसी ‘विष्णुपुराण’ में आगे मांसाहार के त्याग का सुफल बताते हुए कहा है कि

सर्वमांसानि यो राजन् ! यावज्जीवं न भक्षयेत् ।
स्वर्गे स विपुलं स्थानं प्राप्नुयात् नैव संशयः ।।

हे राजन् ! जो किसी भी जीव के मांस को जीवनपर्यन्त नहीं खाता; वह निःसंदेह स्वर्ग में ऊँचे दर्जे का देव होता है।

मांसाहार का निषेध करते हुए हिन्दूधर्म के ही तीसरे प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ में तो यहाँ तक कह दिया है कि -

जिस प्राणी का मांस मैं यहाँ खाता हूँ, वही प्राणी परलोक में मेरा मांस खाता है। यही मांस की मांसता है। ऐसा मनीषियों ने कहा है।(लाटी संहिता, प्रथम सर्ग, श्लोक, 55)

चारित्रसार में आये हुए श्रावकाचार प्रकरण में भी यही भाव प्रगट करते हुए कहा है कि मांसाहारी यह क्यों नहीं सोचता, अथवा वह इस बात को क्यों भूल जाता है - कि जिस पशु-पक्षी का मांस वह खा रहा है, वही पशु-पक्षी जब परलोक या अगले जन्म में मेरी जीवित अवस्था में ही मेरा मांस नोंच-नोंच कर खायेगा उस समय मुझ पर क्या बीतेगी?(लाटी संहिता, प्रथम सर्ग, श्लोक, 16-18)

इसीलिए तो कहा गया है कि -

“आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् अर्थात् दूसरों का जो व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे, वैसा व्यवहार हम दूसरों से न करें।"

मांसाहारी पुरुषों की साधुजन भी निंदा करते हैं और वह परलोक में भी भारी दुःख भोगता है।

मांसाशिनं साधवो निन्दन्ति प्रेत्यच दुःखभाग भवेत् ।

फिर भी न जाने उसकी बुद्धि पर कैसे पत्थर पड़ गये हैं, जिसके कारण उसे अपना हिताहित ही भासित नहीं होता। यह भी मांसाहार का ही दुष्परिणाम है, जो उसकी बुद्धि कुंठित हो गई है और अपने भले-बुरे का ज्ञान भी नहीं रहा है।

मांसाहार से होनेवाली मानसिक व शारीरिक हानियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मांस का एक अंश मात्र भी भक्षण करने से जीवों के भाव सब ओर से संक्लेशरूप व क्रूर हो जाते हैं।(लाटी संहिता, प्रथम सर्ग, श्लोक, 51-64)

क्रूर व संक्लेश परिणाम पापबंध के कारण बनते हैं। वह तीव्र पापबंध जीवों को नानाप्रकार के मानसिक व शारीरिक दु:खों का कारण बनता है। फिर उसे उन दुःखों से कोई नहीं बचा सकता। सभी को अपने किए की सजा भुगतनी ही पड़ती है। | संतकवि श्री तुलसीदासजी ने भी यही भाव व्यक्त करते हुए कहा है -

कर्मप्रधान विश्वकरि राखा ।
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥

अपनी-अपनी करनी का फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है, अत: सबको ऐसे निंद्य व हिंस्य कर्म से तो बचना ही चाहिए, जो दुर्गति का कारण हो और जिससे अनंत काल तक असीमित दुःख उठाना पड़े।

यहाँ किसी को यह आशंका हो सकती है कि हिरण, बकरी, गाय, मेढ़ा और मुर्गा आदि प्राणियों के शरीर के समान उड़द, मूंग, गेहूं, चावल और साग-सब्जी व फलादि भी तो प्राणी का अंग होने से मांस ही है। अत: यदि अन्न आदि भक्ष्य हैं तो मांस भी भक्ष्य ही होना चाहिए। जीवों के संयोग की अपेक्षा तो सभी समान ही हैं न? जैसा पशु-पक्षियों के शरीर में जीव का संयोग है, वैसे ही साग-सब्जी व अन्न में भी जीव का संयोग होता है।

जिनागम में इस शंका का समाधान करते हुए कहा है कि सभी प्रकार का मांस तो जीवों का ही शरीर है, पर सभी जीवों का शरीर मांस नहीं होता।

जीव दो प्रकार के होते हैं, एक स्थावर और दूसरे त्रस। त्रसजीवों का शरीर मांसमय होता है, दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक सभी त्रसकाय कहे जाते हैं, इन सबका शरीर मांसमय होता है तथा सभी प्रकार के अन्न, फल, साग आदि और पानी स्थावर जीव हैं, इन सबके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, इन एकेन्द्रिय जीवों का शरीर मांसरहित होता है। इनके खाने से मांस का दोष नहीं लगता। अतः अन्न, फल व साग-सब्जी तो भक्ष्य है; किन्तु मांस अभक्ष्य है, खाने योग्य नहीं है।

देखो, अपनी माँ तो स्त्री है, पर सभी स्त्रियाँ मां तो नहीं हैं। इसीतरह मांस तो जीवों का शरीर है; पर सभी जीवों का शरीर मांस नहीं है। तथा जिस तरह नारी जाति की अपेक्षा सभी स्त्रियाँ समान होने पर भी पत्नी भोग्य है और मां भोग्य नहीं है बल्कि पूज्य है, उसी तरह जीव जाति की अपेक्षा त्रसव स्थावर सभी जीव होने पर भी स्थावर जीवों का शरीर भक्ष्य है और त्रस जीवों का नहीं।

और भी देखो, दूध और मांस दोनों ही गाय के अंग हैं, गाय में उत्पन्न होते हैं उनमें दूध तो शुद्ध है-भक्ष्य है और मांस अशुद्ध है-अभक्ष्य है। इसप्रकार की वस्तुगत ही यह विचित्रता है। कहा भी है

हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे।
शुद्धदुग्धं न गोमांसं वस्तु वैचित्र्यमीदृशम् ॥

दूध और मांस दोनों के कारण समान होने पर भी दोनों एक ही शरीर से उत्पन्न होने पर भी मांस हेय है और दूध पेय है।

देखो वैष्णव संस्कृति में भी गाय से ही उत्पन्न होनेवाले दूध, दही, घी, आदि पंचगव्यों को तो ग्राह्य कहा है तथा गाय से उत्पन्न होनेवाले गोरोचन को तो पूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में भी उपादेय कहा है, किन्तु गोमांस भक्षण न करने की शपथ दिलाई है।

इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि अन्न, फल व वनस्पति भी प्राणी के अंग होने से मांस की तरह ही अभक्ष्य हैं।

वस्तुत: बात यह है कि दूध, दही, अन्न, फल व खाद्य सब्जियाँ भक्ष्य हैं और मांस सर्वथा अभक्ष्य है।

इस संदर्भ में कुछ ऐसे भी ज्वलंत प्रश्न किए जाते हैं, जिनके समाधान अपेक्षित हैं, जैसे कि -

  • जो लोग शौक से अपनी इच्छा पूर्ति के लिए मद्य-मांस का सेवन करते हैं, उनकी बात तो वे जाने; परन्तु बहुत से व्यक्ति ऐसे भी हैं, जिन्हें मांसाहार जरूरी है, या मांस खाना और जीवों का वध करना जिनकी मजबूरी है, जैसे-भील, धीवर, कसाई आदि लाखों लोग आज इस आजीविका से जुड़े हैं, यदि सभी मांसाहार त्याग दें तो उनका क्या होगा? जिनका जन्म जन्मान्तरों एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ियों से मांसाहार ही मुख्य भोजन रहा है, वे उसके बिना कैसे जीवित रह सकते हैं?
  • दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि यदि मछलियों, मुर्गों, बकरों, भेड़ों आदि मांसोत्पादक पशुओं को मांस के लिए मारा नहीं जाएगा तो इनकी संख्या इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि लोक में समायेगी ही नहीं, तब क्या होगा?
  • तीसरी समस्या यह उपस्थित होती है कि यदि सभी मनुष्य मांस खाना छोड़ दें तो भारी संख्या में मनुष्य जाति भूखों मर जाएगी, क्योंकि इतना अनाज कहाँ से लाया जायगा? मांसाहार से अनाज की भारी बचत होती है। मांस अन्न का पूरक है। इस समस्या से कैसे निबटा जायेगा?
  • मांसाहार के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि मांस खाने से मांस बढ़ता है। मांस सीधे मांस की पूर्ति कर देता है। अत: मांसाहार का सर्वथा निषेध कैसे किया जा सकता है?

उत्तर :- भाई! ऐसे तर्क तो पक्ष व विपक्ष में बहुत दिए जा सकते हैं, पर वास्तविक बात यह है कि सभी मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी ही हैं। मनुष्य की शारीरिक संरचना ही ऐसी है, जिसमें मांस पचाने की शक्ति ही नहीं होती; फिर भी जो मजबूरी से मांसखाते हैं, वे अनेक बीमारियों से घिर जाते हैं, क्योंकि उनकी आँते अतिरिक्त बोझ कबतक सह सकती हैं ? किसी कवि ने ठीक ही कहा है -

मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
मांस उसे अनुकूल नहीं है।
पशु भी मानव जैसे प्राणी,
वे मेवा फल-फूल नहीं हैं।

दूसरे मजबूरी की जो बात कही जाती है, वह भी निराधार है, क्योंकि मांस मिलना इतना सरल भी नहीं है, जितना अन्न-फल व साग-भाजी आदि। मांस तो हमेशा साग-भाजी व अन्य अन्न से महँगा व दुर्लभ होता है, फिर मजबूरी कैसी?

निर्दय परिणामों के बिना मांसाहार संभव ही नहीं है। यह शारीरिक शक्ति के लिए जरूरी भी नहीं है, क्योंकि इसके बिना भी सबसे अधिक श्रम करनेवाला घोड़ा घास व अन्न खाकर अपनी शक्ति का संचय कर लेता है।

जहाँ तक बढ़ती हुई संख्या की समस्या है, उसे प्रकृति स्वयं संतुलित रखती है। मनुष्यों को इसकी चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। तथा अकेला अन्नाहार राष्ट्र की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता - यह तर्क भी निराधार है, क्योंकि मांसोत्पादन करने के बजाय हम अन्नोत्पादन का ही अभियान क्यों न चलाएँ? कितनी जमीन बिना जुती यों ही बंजर पड़ी है। हम चाहें तो सब समस्याएँ सुलटा सकते हैं, बशर्तेयदि मांसाहार की हानियाँ हमारी समझ में आ जावें।

अत: हमारा कर्तव्य है कि हम सब इसकी अधिक से अधिक चर्चा करें और लोगों को सत्य ज्ञान करायें, ताकि मांसाहार से होनेवाली हिंसा के पाप और शारीरिक स्वास्थ्य हानि से बचा जा सके।