समाधिमरण पाठ | Samadhimaran Paath

चिदानन्द चिद्रूप का ध्यान धर, परम ब्रह्म का रूप आया नजर ।।
परमब्रह्म की मुझको आई परख, हुआ उर में सन्यास का अब हरष ।। १ ।।

लगन आत्मराम सौं लग गई, महामोह निद्रा मेरी भग गई ।।
खुली दृष्टि चैतन्य चिद्रूप पर, टिकी आन कर ब्रह्म के रूप पर || २ ||

परमरस की अब तो गटागट मेरे, शुद्धात्म रहस की रटारट मेरे ।।
यहाँ आज रोने का क्या शोर है, मेरे हर्ष आनन्द का जोर है ।। ३ ।।

निरञ्जन की कथनी सुनाओ मुझे, न कुछ और बतिया बताओ मुझे ।।
न रोओ मेरे पास इस वक्त में, कि तिष्ठा हूँ खुशहाल खुश वक्त में ॥४॥

जरा रोवने का तअम्मुल करो, नजर मेहरबानी की मुझ पर धरो ।
उठो अब मेरे पास से सब कुटम्ब, तजो मोह मिथ्यात्व का अब विडम्ब ॥५॥

जरा आत्म भाव उर आने दो, परम ब्रह्म की लय मुझे ध्याने दो।।
मुझे ब्रह्म चर्चा में वर्ते हुलास, करो और चर्चा न तुम मेरे पास || ६ ||

जो भावे तुम्हें सो न भावे मुझे, न झगड़ा जगत का सुहावे मुझे ।।
ये काया पे दृष्टि पड़ी मौत की, निदा आई शिव लोक के नाथ की ।।७।।

ये देह चिरकाल से है मुई, मेरी जिन्दगानी से जिन्दा हुई ।।
तजा हमने नफरत से ये मुर्दा आज, चलो यार चलके करें मुक्ति राज ॥८॥

जिस्म झोपड़ी को लगी आग जब, हुई मेरे वैराग्य की जाग तब ।।
सम्हाले ये मैंने रतन अपने तीन, लिया ब्रह्म अपने को मैं आप लीन ॥ ९ ॥

जिसे मौत है उसको है, मुझको क्या?, मुझे तो नहीं भव भय मुझको क्या ।।
मेरा नाम तो आत्म है आत्म हूँ, चिरञ्जीव चिरकाल चिरजीव हूँ ।।१०।।

अखंडित, अमंडित, अरूपी अलख, अदेही, अमोही, अनेही, निरख ।।
परम ब्रह्मचर्य परम शांतसम, निरालोक लोकेश लोकान्ततम् ।।११ ।।

परम ज्योति परमेश परमात्मा, परम सिद्ध प्रसिद्ध शुद्धात्मा ।।
चिदानंद चैतन्य चिद्रूप हूँ, निरञ्जन निराकार शिवभूप हूँ ।।१२।।

चिता में धरो इसको ले जाके तुम, हुए तुमसे रुखसत झमाले के हम ।।
कहीं जाओ यह देह क्या इससे काम, तजी इसकी रगवत मुहब्बत तमाम ।।१३।।

मुए संग रह-रह बहुत कुछ मुए, मगर आज निर्गुण निरंजन हुए।।
तिहुँ जग में सन्यास की ये घड़ी, मेरे हाथ आई ये अद्भुत जड़ी ।।१४।।

विषय-विष से निर्विष हुआ आज मैं, चलाचल से अविचल हुआ आज मैं ॥
परम ब्रह्म लाहा लिया आज मैं, परम भाव अमृत पिया आज मैं ।। १५ ।।

घटा आत्म उपयोग की आई झूम, अजब तुर्फ तुरियाँ बनी रंगभूम।।
शुक्लध्यान टाली की टंकोर है, निजानन्द झांझन की झंकोर है।।१६।।

अजर हूँ, अमर हूँ, न मरता कभी, चिदानंद शाश्वत न डरता कभी।।
कि संसार के जीव मरते डरें, परमपद को ‘जीवराज’ वंदन करें ।।१७।।

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जिस पुस्तक से यह लिया गया है उसका नाम व रचयिता का नाम भी लिख दीजिए।

मुझे यह पाठ एक A4 size printout sheet पर मिला था भैया इसलिए इस पाठ के रचयिता एवं कौनसी पुस्तक से लिया गया, मुझे इस बात का पता नहीं है।