समाधिमरण भाषा
गौतम स्वामी बन्दौं नामी मरण समाधि भला है ।
मैं कब पाऊँ निस दिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला हैं ।।
देव धरम गुरु प्रीति महादृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने ।
त्यागि बाईस अभक्ष संयमी बारह व्रत नित ठाने ।।
चक्की उखरी चूलीं बुहारी पानी बस न विराधै ।
बनिज करे पर द्रव्य हरे नहिं छहों करम इमि साधै ।।
पूजा शास्त्र गुरुन की सेवा संयम तप चहुँ दानी ।
पर उपकारी अल्प अहारी सामायिक विधिज्ञानी ।।
जाप जपै तिहुँ योग धरे दृढ़ तन की ममता टारै ।
अन्त समय वैराग्य सम्हारे ध्यान समाधि विचारै ।।
आग लगे अरु नाव डुबै जब धर्म विघन जब आवै ।
चार प्रकार अहार त्यागि के मन्त्र सुमन में ध्यावै ।।
रोग असाध्य जहाँ बहु देखे कारण और निहारै ।
बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डारै ।।
जो न बने तो घर में रह करि सबसों होय निराला ।
मात पिता सुत तिय को सौंपे निज परिग्रह अहि काला ।।
कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुखिया धन देई।
क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मन की शल्य हनेई ।।
शत्रुन सों मिलि निजकर जोरै मैं बहु करि है बुराई ।
तुम से प्रीतम को दुख दीने ते सब बकसो भाई ।।
धन धरती जो मुख सों मांगे सो सब दे संतोषै ।
छहों काय के प्राणी ऊपर करुणा भाव विशेषै ।।
ऊँच नीच घर बैठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पय लै ।
दूधाधारी क्रम क्रम तजिके छाछ अहार पहेलै ।।
छाछ त्यागि के पानी राखै पानी तजि संथारा ।
भूमि माँहि थिर आसन मांडे साधर्मी ढिंग प्यारा ।।
जब तुम जानो यह न जपै है तब जिनवाणी पढिए ।
यों कहि मौन लियो सन्यासी पंच परम पद गहिए ।।
चौ आराधन मन में ध्यावै बारह भावन भावै ।
दशलक्षण मन धर्म विचारै रत्नत्रय मन ल्यावै ।।
पैंतीस सोलह षट् पन चारों दुई इक बरन विचारै ।
काया तेरी दुखकी ढेरी ज्ञानमयी तू सारै ।।
अजर अमर निज गुण सो पूरे परमानन्द सुझावै ।
आनन्दकन्द चिदानन्द साहब तीन जगतपति ध्यावै ।।
क्षुधा तृषादिक होय परीषह सहै भाव सम राखै ।
अतीचार पाँचों सब त्यागैं ज्ञान सुधारस चाखै ।।
हाड़ मांस सब सूखि जाय जब धर्म लीन तन त्यागै ।
अद्भुत पुण्य उपाय सुरग में सेज उठै ज्यों जागै ।।
तहँ तें आवै शिवपद पावै विलसैं सुक्ख अनन्तो ।
‘द्यानत’ यह गति होय हमारी जैन धर्म जयवन्तो ।।
रचयिता:- कविवर पं. द्यानतराय जी