समाधिमरण पाठ | Samadhi Maran Path | सहज समाधिस्वरूप सु ध्याऊं।

सहज समाधिस्वरूप सु ध्याऊँ, ध्रुव ज्ञायक प्रभु अपना।
सहज ही भाऊँ सहज ही ध्याऊँ, ध्रुव ज्ञायक प्रभु अपना ॥ १ ॥

आधि व्याधि उपाधि रहित हूँ, नित्य निरंजन ज्ञायक ।
जन्म मरण से रहित अनादिनिधन ज्ञानमय ज्ञायक ॥२॥

भावकलंक से भ्रमता भव-भव, क्षण नहीं साता आयी।
पहिचाने बिन निज ज्ञायक को, असह्य वेदना पायी ॥ ३ ॥

मिला भाग्य से श्री जिनधर्म, सुतत्त्व ज्ञान उपजाया ।
देहादिक से भिन्न ज्ञानमय, ज्ञायक प्रत्यक्ष दिखाया ||४||

कर्मादिक सब पुद्गल भासे, मिथ्या मोह नशाया।
धन्य-धन्य कृतकृत्य हुआ, प्रभु जाननहार जनाया ॥५॥

उपजे विनसे जो यह परिणति, स्वांग समान दिखावे ।
हुआ सहज माध्यस्थ भाव, नहीं हर्ष विषाद उपजावे ॥६॥

स्वयं, स्वयं में तृप्त सदा ही, चित्स्वरूप विलसाऊँ ।
हानि-वृद्धि नहीं होय कदाचित्, ज्ञायक सहज रहाऊँ ॥७॥

पूर्ण स्वयं मैं स्वयं प्रभु हूँ, पर की नहीं अपेक्षा ।
शक्ति अनन्त सदैव उछलती, परिणमती निरपेक्षा ॥८॥

अक्षय स्वयं सिद्ध परमातम, मंगलमय अविकारी ।
स्वानुभूति विलसे अन्तर में, भागे भाव विकारी ॥९॥

निरुपम ज्ञानानन्दमय जीवन, स्वाश्रय से प्रगटाया।
इन्द्रिय विषय असार दिखे, आनन्द स्वयं में पाया ॥ १०॥

नहीं प्रयोजन रहा शेष कुछ, देह रहे या जावे।
भिन्न सर्वथा दिखे अभी ही, नहीं अपनत्व दिखावे ॥११॥

द्रव्यप्राण तो पुद्गलमय हैं, मुझसे अति ही न्यारे।
शाश्वत चैतन्यमय अन्तर में, भावप्राण सुखकार || १२ ||

उनही से ध्रुव जीवन मेरा, नाश कभी नहि होवे।
अहो महोत्सव के अवसर में, कौन मूढ़जन रोवे? ।।१३।।

खेद न किञ्चित् मन में मेरे, निर्ममता हितकारी।
ज्ञाता द्रष्टा रहूँ सहज ही, भाव हुए अविकारी || १४ ||

आनन्द मेरे उर न समावे, निर्ग्रन्थ रूप सु धारूँ।
तोरि सकल जगद्वन्द्व-फन्द, निज ज्ञायकभाव सम्हारूँ ||१५||

धन्य सुकौशल आदि मुनीश्वर हैं, आदर्श हमारे।
हो उपसर्गजयी समता से, कर्मशत्रु निरवारे ||१६||

ज्ञानशरीरी अशरीरी प्रभु शाश्वत् शिव में राजें ।
भावसहित तिनके सुमरण तैं, भव-भव के अघ भाजें ।।१७ ॥

उन समान ही निजपद ध्याऊँ, जाननहार रहाऊँ ।
काल अनन्त रहूँ आनन्द में, निज में ही रम जाऊँ ॥ १८॥

क्षणभंगुरता पर्यायों की, लखकर मोह निवारो ।
अरे! जगतजन द्रव्यदृष्टि धर, अपना रूप सम्हारो ||१९||

क्षमाभाव है सबके ही प्रति, सावधान हूँ निज में।
पाने योग्य स्वयं में पाया, सहज तृप्त हूँ निज में ॥ २० ॥

साम्यभाव धरि कर्म विडारूँ, अपने गुण प्रगटाऊँ ॥
अनुपम शाश्वत प्रभुता पाऊँ, आवागमन मिटाऊँ ॥ २१ ॥

(दोहा)

शान्त हुआ कृतकृत्य हुआ, निर्विकल्प निज माँहि ।
तिष्ठुॅं परमानन्दमय, अविनाशी शिव माँहि ||२२||

Source: वैराग्य पाठ संग्रह
रचयिता: आदरणीय बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ’ आत्मन् ’

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