हे वीर आपके चरणों में, मैं सविनय शीश झुकाता हूँ।
परिणति में निर्मलता पाने, निज भाव समाधि लाता हूँ ॥ १॥
चौ- आराधन, बारह भावन; सोलह कारण मैं भाऊँ।
दशलक्षणमय धर्म विचारूँ, उर में अनुकम्पा लाऊँ ||२||
जाने-अनजाने में प्रमादवश, जिन जीवों का घात हुआ ।
सरल हृदय से क्षमा मांगता, जो कुछ भी अपराध हुआ ॥ ३।।
मन-वचन-काय, कृत-कारित से, अनुमोदन से जो भूल हुई।
मैं निज निन्दा गर्हा करता जो जीवों के प्रतिकूल हुई || ४ ||
सब जीवों से क्षमा चाहता, क्षमा सभी को करता हूँ।
दुष्कृत कर्म सभी मिथ्या हों, प्रभो! प्रार्थना करता हूँ ||५||
मोह, मान,मिथ्यात्व भाव तज, कर्तापन का नाश करूँ ।
संयोगों का ज्ञाता बनकर, स्व-पर भेद विज्ञान करूँ ॥६॥
सभी जीव भगवान आत्मा, किसे राग, किसे द्वेष करूँ ।
सब संकल्प-विकल्पादि तज, पर्ययदृष्टि विलीन करूँ ||७||
इष्ट-अनिष्ट भावना तज प्रभु! ज्ञाता दृष्टा भाव करूँ ।
सब जीवों में जिनवर देखूँ, द्रव्य-दृष्टि निज प्रगट करूँ ॥८॥
देह विनाशी मैं अविनाशी, नित चैतन्य स्वरूपी हूँ।
उपजै-विनशै सो यह पुद्गल, मैं निर्देह अरूपी हूँ॥९॥
तत्त्वमनन, चिन्तन अनुभव से, वस्तुस्वरूप का भान करूँ । सर्वोत्कृष्ट निज आत्मतत्त्व का. सहज परम रसपान करूँ ।१०।
पंच प्रमाद भाव को तज प्रभु! जीवन में समता पाऊँ ।
दर्शनबोध, चरणपथ पर बढ़, परम शान्ति सुख को पाऊँ ॥ ११॥
अन्तिम सहजभावना प्रभुवर! अन्त दिगम्बर मुनि का हो।
सान्निध्य रहे सद्गुरुओं का, और मृत्यु महोत्सव जैसा हो ॥ १२॥
रोग, शोक उपसर्गादि में, साम्य भाव धर जय पाऊँ ।
निज स्वरूप में रमते रमते, सहज समाधि को पाऊँ ॥ १३ ॥
(दोहा)
वीतराग प्रभु आपसे विनती है कर जोर।
मम परिणति प्रतिपल झुके, निज शुद्धातम ओर ॥
ख्याति लाभ चाहूँ नहीं, नहीं सुर चक्री आस ।
निर्विकल्प होऊँ सहज’, निज में करूँ निवास ॥
- संतोष जैन ‘सहज’ गुरसरांय (उ.प्र.)