सफल है धन्य धन्य वा घरी। Safal hai Dhany Dhany va Ghadi

सफल है धन्य धन्य वा घरी

लावनी

सफल है धन्य धन्य वा घरी,

जब ऐसी अति निर्मल होसी, परम दशा हमरी टेक ||

धारि दिगंबरवीक्षा सुंदर, त्याग परिग्रह अरी ।
वनवासी कर पात्र परीषह, सहि हों धीर धरी ।। १ ।।

दुर्धर तप निर्भर नित तप हों, मोह कुवृक्ष करी ।
पंचाचारक्रिया आचरहों, सकल सार सुधरी ।।२ ।।

विभ्रमतापहरन झरसी निज अनुभव मेघझरी।
परम शान्त भावनकी तातैं, होसी वृद्धि खरी || ३ ||

त्रेसठिप्रकृति भंग जब होसी, जुत त्रिभंग सगरी ।
तब केवलदर्शनविबोध सुख, वीर्यकला पसरी ||४ ||

लखि हो सकल द्रव्यगुनपर्जय, परनति अति गहरी ।
‘भागचन्द’ जब सहजहि मिल है, अचल मुकति नगरी ॥५ ।।

रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन