ऋषभावतार | Risabhavtaar

मंगल-मय नव युग का प्रभात
जा रहा भोग आ रहा कर्म
अवरुद्ध मुक्ति के द्वार खुले
जागा चेतन में आत्म धर्म

ले मुक्ति साध मानव जागा
दिनकर विधु हँसे गगन तल में
तुम क्रान्ति लिए उतरे योगी
थी क्रान्ति अवनि में, अंबर में

प्रतिबद्ध - पक्ष चेतन - विहंग
ले सका मुक्ति की श्वास नहीं
जब भोग भूमि के स्वर्णमयी
पिंजर की वह चिरदास रही

तुम अद्भुत परिवर्तन लाये
अब बाह्यान्तर का एक बोल
श्रम-श्रम की पुण्य-तुला पर अब
मानव-जीवन को रहा तोल

रे! श्रम वंचित थी भोग-भूमि
बस मुक्ति-मुक्ति की प्यास रही
अब खुले धरित्री के बंधन
स्वाधीन मुक्ति - प्रश्वास वहीं

बहिरंग और अंतर जीवन
प्रभु! तुझमें एकाकार हुए
जिसके अभाव में भोग भूमि
के सुख विषमय संभार रहे

असि,मसि,कृषि,शिल्प,वणिज,विद्या
जीवन के भौतिक उपादान
आगार और अनगार उभय
पथ के प्रभु थे तुम मूर्तमान

अन्तर दृग बोध चरण पौरुष
से खुला क्षपक-उपशम विधान
योगी! तुम वसुधा पर उतरे
फट गये अज्ञता के वितान

तुम स्वयं लोक आदर्श बने
अन्तर चाहे उन्मूलन कर
रे योगी! बढ़े निरन्तर ही
जब तक न अनाकुल था अंतर

मृण्मय काया का विलय और
फिर समरसता विलसी अनंत
अचलित चैतन्य नमन तुमको
वंदन शत लोकातीत संत

Artist: श्री बाबू जुगलकिशोर जैन ‘युगल’ जी
Source: Chaitanya Vatika