री चल बंदिये चल बंदिये, री, महावीर जिनराय ॥
पाप निकन्दिये महावीर जिनराय, वारी वारी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥
विपुलाचल परवत पर आया समवसरन बहु भाय ॥ री चल. ॥ १ ॥
गौतमरिख से गनधर जाके, सेवत सुरनर पाव ॥ री चल ॥ २ ॥
बिल्ली मूसे गाय सिंहसों, प्रीति करै मन लाय ॥ री चल ॥ ३ ॥
भूपतिसहित चेलना रानी, अंग अंग हुलसाय ।। री चल. ॥ ४ ॥
‘द्यानत’ प्रभुको दरसन देखें, सुरग मुकति सुखदाय ॥ री चल. ।।५॥
अर्थ: अरे ! चलकर श्री महावीर जिनेन्द्र का वंदन करो। जिनकी वंदना से पापों का नाश होता है, उसकी महिमा अकथनीय है। मैं उस पर वारि जाता हूँ ।
विपुलाचल पर्वत पर भगवान का समवसरण आया है, जो मन को बहुत भा रहा है, अच्छा लग रहा है।
गौतम से विद्वान ऋषि जिनके गणधर हैं। देव व मनुष्य सभी जिनके चरणों की सेवा करते हैं।
जाति विरोध तजकर बिल्ली और चूहा, गाय और सिंह सभी में आपस में मैत्री स्थापित हो गई है।
रानी चेलनासहित राजा श्रेणिक के रोम-रोम अति प्रसन्नता से पुलकित हो रहे हैं।
द्यानतराय जी कहते हैं कि ऐसे प्रभु के दर्शन से स्वर्ग व मुक्ति दोनों की प्राप्ति होती है। दोनों सुलभ होते हैं।
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी
सोर्स: द्यानत भजन सौरभ