रक्षाबंधन : कुछ प्रश्नोत्तर | Rakshabandhan : Some Q&A

१. प्रश्न : आपने कहा कि रक्षा करने का भाव भी बंध का कारण है, तो क्या मुनिराज विष्णुकुमार को पापबंध हुआ होगा, उनका भी नुकसान हुआ होगा ?
उत्तर : अरे, भाई ! हमने यह तो नहीं कहा कि रक्षा करने का भाव पापबंध का कारण है; हमने तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा था कि रक्षा करने का भाव पुण्यबंध का कारण है; इसलिये मुनिराज विष्णुकुमारजी को भी पुण्यबंध ही हुआ होगा; किन्तु उन्हें नुकसान तो हुआ ही, दीक्षा का छेद हो गया, गृहस्थ वेष अपनाना पड़ा, छल-कपट करना पड़ा, झूठ बोलना पड़ा । यह सब कुछ नुकसान ही तो है।

२. प्रश्न : हमने तो यह पढ़ा है कि झूठ बोलना पाप है, छल-कपट करना भी पापबन्ध का कारण है; परन्तु आप कह रहे हैं कि उन्हें पुण्यबन्ध हुआ होगा?
उत्तर : हमने यह कब कहा कि झूठ बोलने या छल-कपट करने से पुण्यबन्ध होता है; हमने तो यह कहा कि वात्सल्यभाव के कारण उन्हें परमतपस्वी मुनिराजों की रक्षा करने का तीव्र भाव आ गया था; इस कारण उन्हें पुण्यबन्ध हुआ होगा।

३. प्रश्न: यदि वे यह सब नहीं करते तो बेचारे मुनिराजों का क्या होता?
उत्तर : महान तपस्वी ज्ञानी-ध्यानी मुनिराजों को तुम बेचारे कहते हो? अरे! वे तो अपने आत्मा की परम शरण में थे। उनमें से एक-एक ऐसा था की कुछ भी चमत्कार कर सकता था; पर उन्हें यह उचित ही नहीं लगा; इसलिए कुछ भी नहीं किया।

४.प्रश्न: ऐसी परिस्थिति में आज के मुनिराजों को क्या करना चाहिए?
उत्तर : हम क्या कहें ? यह निर्णय तो उनको ही करना होगा की उन्हें विष्णुकुमार के पथ पर चलना है या आचार्य अकंपन आदि सात सौ मुनिराजों के पथ पर; यदि विष्णुकुमार के पथ पर ही चलना है तो फिर उनके समान ही सब कुछ करें। उन्होंने यह सब मुनिपद छोड़कर किया था; पर…।

५.प्रश्न : उस समय भी श्रुतसागर और विष्णुकुमार जैसे मुनिराज थे?
उत्तर : हाँ, थे तो; पर सात सौ में एक-दो, सभी नहीं। शेष सब तो आत्मा के ज्ञान-ध्यान में ही मग्न रहे थे। विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी आकुल-व्याकुल नहीं हुये, अपने पथ से नहीं डिगे।
पर आज तो अधिकांश को विष्णुकुमार बनना है, श्रुतसागर बनना है; मुँहतोड़ जवाब देना है, विरोधियों की सात पीढ़ियों का बखान करना है और न मालूम क्या-क्या करना है? आचार्य अकंपन के आदर्श पर चलने वाले तो उंगलियों पर गिनने लायक हैं।
श्रुतसागरजी ने वाद-विवाद एक बार ही किया था, शेष जीवनभर तो वे आत्मज्ञान-ध्यान में लीन रहे थे। इसीप्रकार विष्णुकुमारजी ने भी यह सब एक बार ही किया था, आगे-पीछे तो वे भी आत्मज्ञान ध्यानरत रहे; यदि उन्हें आदर्श बनाना है तो उनके आत्मध्यान वाले रूप को अपना आदर्श क्यों नहीं बनाते ?

६. प्रश्न : मुनिराजों की बात जाने दो, पर हम गृहस्थों को तो उनकी पूजा ही करनी चाहिए न?
उत्तर : अवश्य करना चाहिए; पर उनके इन कार्यों के कारण नहीं, अपितु उनकी वीतरागता के कारण, उनके आत्मध्यान के कारण।

७. प्रश्न : इन कार्यों के कारण क्यों नहीं, यह भी तो…?
उत्तर : हाँ, यह भी अच्छा कार्य है, पर उन्होंने जब यह कार्य किया था, तब तो वे अव्रती गृहस्थ बन गये थे। क्या अव्रती गृहस्थों की भी पूजन की जाती है ? उनका यह बावनियों का रूप पूज्य नहीं हो सकता और इसके कारण उनकी पूजा भी नहीं हो सकती।

८. प्रश्न : आप तो ज्ञान-ध्यान में लीन साधुओं के ही गीत गाये जा रहे हैं; कुछ संत समाज का काम करनेवाले भी तो चाहिए। आचार्य समन्तभद्र ने भी तो इसीप्रकार प्रभावना की थी। क्या उनके बारे में भी आपका सोचना ऐसा ही है ?
उत्तर : अरे भाई ! आचार्य समन्तभद्र तो रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्वयं ही लिखते हैं कि -
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः।
ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते ।।
पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, आरंभ-परिग्रह से रहित और ज्ञान-ध्यान में लीन तपस्वी ही प्रशंसा योग्य हैं।
इसप्रकार हम भी आचार्य समंतभद्र की बात को ही प्रस्तुत कर रहे हैं।

९. प्रश्न : उन्होंने अपनी भक्ति के माध्यम से शिव की पिंडी में से चन्द्रप्रभ भगवान को प्रगट कर दिया था।
उत्तर : उन्होंने जो कुछ भी किया था, वह सब मुनिपद छोड़कर किया था। क्या मुनिपद पर रहते हुए भी शिवजी को भोजन कराने की असत्य बात कहना, चोरी से वह भोजन खुद खा जाना आदि कार्य किये जा सकते हैं? धर्म की बात तो बहुत दूर क्या इन्हें पुण्य कार्य भी कहा जा सकता है ? क्या आप यह चाहते हैं कि आज के युग में भी कोई ऐसा करे? अरे, उनकी दीक्षा का भी तो छेद हो गया था।
ये कुछ बातें हैं, जो गंभीर चिंतन-मनन की अपेक्षा रखती हैं।
ज्ञान-ध्यान से विरक्त और आरंभ-परिग्रह के विकल्पों में उलझे कुछ लोग जब आचार्य समंतभद्र से अपनी तुलना करते हैं तो हँसी आती है।

१०. प्रश्न : आचार्य समन्तभद्र को तो भस्मकव्याधि हो गई थी; इसलिए उन्हें ऐसा करना पड़ा ?
उत्तर : यह बात तो सत्य ही है; फिर भी कुछ प्रश्न चित्त को आन्दोलित करते हैं। उन्हें अपनी व्याधि के शमन के लिये विधर्मियों का सहारा क्यों लेना पड़ा, असत्य क्यों बोलना पड़ा, चोरी से पेट क्यों भरना पड़ा और आहार-जल की शुद्धि से विहीन आहार क्यों लेना पड़ा?
क्या यह जैन समाज का कर्तव्य नहीं था कि उनके आहार-पानी की शुद्धसात्विक व्यवस्था करता, उनकी व्याधि का अहिंसक उपचार कराता।
अरे भाई ! मुनिपद तो उन्होंने छोड़ ही दिया था; पर यदि हम सहयोग करते तो वे निर्मल आचरण वाले श्रावक तो रह ही सकते थे। क्या यह हम सबका दुर्भाग्य नहीं है कि उन्हें ऐसा सब कुछ करना पड़ा, जो एक श्रावक के लिए भी उचित नहीं था।
जिन्होंने घर-बार, पत्नी-परिवार सब कुछ छोड़ दिया; हम उन संतों को भी समाज के काम में लगाना चाहते हैं, उनसे ही अपने तीर्थों-मन्दिरों का उद्धार कराना चाहते हैं; अरे भाई! यह तो गृहस्थों के कार्य हैं; इन्हें तो हम सबको मिलकर करना चाहिए । सन्तों से तो मात्र आत्मोद्धार में ही प्रेरणा लेना चाहिए, सहयोग लेना चाहिए; उन्हें इन कामों में उलझाना कोई समझदारी का काम तो नहीं है।

११.प्रश्न : भाई को राखी बाँधने और बहिन से राखी बँधवाने की बात तो इस कहानी में कहीं आई ही नहीं ? फिर इसे रक्षाबंधन क्यों कहते हैं ?
उत्तर : रक्षा का भाव भी बंधन है, बंध का कारण है, यह बताने के लिये ही - इस पर्व का नाम रक्षाबंधन रखा गया हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं।
जो भी हो, पर इतनी बात नक्की और पक्की है कि यद्यपि मुनिराजों को शुभोपयोग भी होता है; परन्तु सर्वोत्कृष्ट मुनिदशा तो शुद्धोपयोगरूप ही है, आत्मज्ञानपूर्वक आत्मध्यानरूप ही है।
शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी मुनिराज अलग-अलग नहीं होते। जब मुनिराज छठे गुणस्थान में रहते हैं, तब शुभोपयोगी होते हैं और जब वे ही मुनिराज सातवें या उसके भी आगे जाते हैं; तब शुद्धोपयोगी होते हैं। छठवाँ गिरने का गुणस्थान है और सातवाँ आगे बढ़ने का छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज अपनी तीन कषाय के अभावरूप शुद्धपरिणति के कारण और आगे के समस्त मुनिराज अपनी शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोग के कारण परमपूज्य हैं, वंदनीय हैं, अभिनन्दनीय हैं।
अन्त में मैं आत्मध्यान में लीन अकंपन आदि सात सौ मुनिराजों और मुनिराज श्री श्रुतसागर एवं विष्णुकुमार के चरणों में शत-शत वंदन के साथ उक्त चर्चा से अभी विराम लेता हूँ।

लेखक : डॉ.श्री हुकमचंद जी भारिल्ल
source: रक्षाबंधन और दीपावली

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