श्री अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनिवर पूजन
रचयिता - श्री राजमलजी पवैया कृत
(छन्द-ताटक)
जय अकम्पनाचार्य आदि सात सौ साधु मुनिव्रत धारी।
बलि ने कर नरमेघ यज्ञ उपसर्ग किया भीषण भारी।।
जय जय विष्णुकुमार महामुनि ऋद्धि विक्रिया के धारी।
किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणाधारी ।।
रक्षा-बन्धन पर्व मना मुनियों का जय-जयकार हुआ।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन घर-घर मंगलाचार हुआ।।
श्री मुनि चरणकमल में वन्दूँ पाऊँ प्रभु सम्यग्दर्शन ।
भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरूप में रहूँ मगन ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः,
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
जन्म-मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण।
राग-द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति में करूँ रमण।।
श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन ।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव सन्ताप मिटाने को मैं चन्दन करता हूँ अर्पण।
देह भोग भव से विरक्त हो निज परिणति में करूँ रमण।।श्री.।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूँ अर्पण।
हिंसादिक पापों को क्षय कर निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री.।।
ॐ ह्रीं श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
कामबाण विध्वंस हेतु मैं सहज पुष्प करता अर्पण।
क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परिणति में करूँ रमण।।
श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधारोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण।
विषयभोग की आकांक्षा हर निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री.।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीपज्योति करता अर्पण।
सम्यग्दर्शन का प्रकाश पा निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री.।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण।
सम्यग्ज्ञान हृदय प्रकटाऊँ निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ति प्राप्ति हित उत्तम फल चरणों में करता हूँ अर्पण।
मैं सम्यक्चारित्र प्राप्त कर निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री.।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत पद अनर्घ्य पाने को उत्तम अर्घ्य करूँ अर्पण।
रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(दोहा)
वात्सल्य के अंग की, महिमा अपरम्पार ।
विष्णुकुमार मुनीन्द्र की, गूंजी जय-जयकार ।।
(तांटक)
उज्जयनी नगरी के नृप श्रीवर्मा के मंत्री थे चार ।
बलि, प्रहलाद, नमुचि वृहस्पति चारों अभिमानी सविकार।।
जब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में आया।
सात शतक मुनि के दर्शन कर नृप श्रीवर्मा हर्षाया।।
सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निंदा की।
कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसी से नहीं तत्त्व की चर्चा की।
किन्तु लौटते समय मार्ग में, श्रुतसागर मुनि दिखलाये।
वाद-विवाद किया श्री मुनि से, हारे, जीत नहीं पाये।।
अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने आये।
खड्ग उठाते ही कीलित हो गये हृदय में पछताये ।।
प्रातः होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन ।
देश-निकाला दिया मंत्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ।।
चारों मंत्री अपमानित हो पहुँचे नगर हस्तिनापुर ।
राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर ।।
मुँह-माँगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर ।
जब चाहूँगा तब ले लूँगा, बलि ने कहा नम्र होकर ।।
फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर आये।
बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये।।
कुटिल चालचल बलि ने नृपसे आठ दिवस का राज्य लिया।
भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया।।
हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्व ध्यान में लीन हुए।
नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए।।
यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंग विचित्र ।
दान किमिच्छक देता था, पर मन था अति हिंसक अपवित्र ।।
पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णुकुमार महा मुनिवर ।
वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ।।
किया गमन आकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर आये।
ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये ।।
बलि से माँगी तीन पाँव भू, बलिराजा हँसकर बोला।
जितनी चाहो उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला।।
हँसकर मुनि ने एक पाँव में ही सारी पृथ्वी नापी।
पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ।।
ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा।
क्षमा-क्षमा कह कर बलि ने, मुनिचरणों में मस्तक रक्खा।।
शीतल ज्वाला हुई अग्नि की श्री मुनियों की रक्षा की।
जय-जयकार धर्म का गूंजा, वात्सल्य की शिक्षा दी।।
नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया।
बलि आदिक का हुआ हृदय परिवर्तन जय-जयकार किया।।
रक्षासूत्र बाँधकर तब जन-जन ने मंगलाचार किये।
साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये।।
समकित के वात्सल्य अंग की महिमा प्रकटी इस जग में।
रक्षा-बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्भ हुआ जग में ।।
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन था रक्षासूत्र बँधा कर में।
वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर-घर में ।।
प्रायश्चित्त ले विष्णुकुमार ने पुनः व्रत ले तप ग्रहण किया।
अष्ट कर्म बन्धन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया।।
सब मुनियों ने भी अपने-अपने परिणामों के अनुसार।
स्वर्ग-मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय-जयकार ।।
धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूँ।
रहे शुद्ध आचरण सदा ही धर्म-मार्ग अनुकूल चलूँ ।।
आत्मज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज-पर को मैं पहिचानूँ।
समकित के आठों अंगों की, पावन महिमा को जानूँ।।
तभी सार्थक जीवन होगा सार्थक होगी यह नर देह ।
अन्तर घट में जब बरसेगा पावन परम ज्ञान रस मेह ।।
पर से मोह नहीं होगा, होगा निज आतम से अति नेह।
तब पायेंगे अखंड अविनाशी निजसुखमय शिवगेह ।।
रक्षा-बंधन पर्व धर्म का, रक्षा का त्यौहार महान ।
रक्षा-बंधन पर्व ज्ञान का रक्षा का त्यौहार प्रधान ।।
रक्षा-बंधन पर्व चरित का, रक्षा का त्यौहार महान ।
रक्षा-बंधन पर्व आत्म का, रक्षा का त्यौहार प्रधान ।।
श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सात शतक को करूँ नमन ।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वन्दन ।।
ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जयमालापूर्णाय निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
रक्षा बन्धन पर्व पर, श्री मुनि पद उर धार ।
मन-वच-तन जो पूजते, पाते सौख्य अपार ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
Source: जिनेन्द्र अर्चना