‘रक्षाबंधन’ शब्द सुनकर बहिनों को अपने भाईयों की तथा भाईयों को अपनी बहिनों की याद आना स्वाभाविक ही है और क्यों न हो, जहाँ भारत ही नहीं, बल्कि नेपाल तथा मॉरिशस जैसे देशों की समाज ने, संस्कृति ने एवं वहाँ के इतिहास के पन्नों ने भी जिसे मान्यता दी हो तथा बड़ी ही शिद्दत से भाई-बहिन को करीब लाने का प्रयास किया हो; ‘राखी उर्फ रक्षाबंधन’ आदि प्रसिद्ध बड़े-बड़े नाटकों ने जिसे सराहा हो, ‘भैया मेरे राखी के बन्धन को निभाना’ आदि फिल्मी गीतों ने भी जहाँ जनमानस के अधर पटलों (होठों) पर अपना स्थान बनाया हो; धार्मिक ग्रन्थ या पुराण भी जिसके जिक्र से अछूते न रह पाये हों, तब वह पावन पुनीत दिवस किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करेगा?
श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाए जाने वाले इस त्यौहार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर महिलाएं और लड़कियाँ अपने भाईयों की भाल (मस्तक) पर हल्दी व चावल से तिलक तथा दाहिनी कलाई पर आपसी प्रेम का, रक्षा की सौगन्ध का तथा भाईयों की दीर्घायु का प्रतीक रेशमी धागा (राखी) बाँधकर अपने भाईयों से उपहार-स्वरूप कोई भेंट (गिफ्ट) या धनादिक ग्रहण कर प्रमुदित होती दिखाई देती हैं।
रक्षा की भावना से राखी बाँधना ही रक्षाबंधन है। भारत देश के विविध प्रान्तों में इसे ‘राखी’, ‘श्रावणी’, ‘सलूनो’, ‘अवनि अवित्तम’ ‘नारियल पूर्णिमा’ आदि अनेक नामों से जाना जाता है।
यह त्यौहार अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण होते हुए भी वर्तमान युग की समाज ने उसे मात्र भाई-बहिन के प्रेम में सीमित कर बहुत ही संकुचित और संकीर्ण बना दिया है।
कोई इस त्यौहार को मात्र हिन्दुओं का त्यौहार कहता है तथा कोई इसे मात्र भाई-बहिन को ही मनाने का अवसर देना चाहता है; किन्तु क्या रक्षा या प्रेम की जरूरत मात्र किसी एक धर्म के अनुयायियों को है? क्या भाई मात्र अपनी बहिन की ही रक्षा करे? क्या वह अपने माता-पिता, पत्नी या पुत्र-पुत्री की रक्षा के प्रति जिम्मेदार नहीं है? क्या इस दिन हम समाज और देश की रक्षा का संकल्प नहीं ले सकते? क्या हमारे आसपास के वातावरण में रहने वाले पशु तथा आकाश में चहचहाते प्रसन्नचित्त पक्षियों की सुरक्षा; विलुप्त होती जा रही प्रजातियों का संरक्षण; हमारे चारों ओर का सौम्य व मनोरम पर्यावरण तथा जिनके बिना हम अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते - ऐसे जल व वनस्पति की रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी नहीं? और इनके बिना क्या अकेला भाई अपनी बहिन के अस्तित्व को कायम रख पायेगा?
इतिहास के आईने में झांकने तथा पुराणों के पन्ने पलटने पर संकीर्णताओं की संकुचित वृत्ति पर कुठाराघात लगे बिना न रह सकेगा।
भविष्य पुराणादि हिन्दु धर्मग्रन्थों में ही दानवों पर विजय प्राप्ति हेतु इन्द्राणी (पत्नी) द्वारा इन्द्र (पति) को रक्षाकवचरूपी धागा बाँधने की घटना (श्रावण पूर्णिमा का दिवस) तथा उन्हीं के अन्य स्कन्धपुराण, पद्मपुराण व श्रीमद्भागवत् में वामनावतार नामक कथा प्रसंग में विष्णुजी की वापसी हेतु लक्ष्मीजी द्वारा शत्रु स्वरूप दानवेन्द्र राजा बलि को राखी बाँधना (श्रावण पूर्णिमा के दिन) तथा महाभारत युग में विजय प्राप्ति हेतु श्रीकृष्णजी की सलाह पर सैनिकों तथा पाण्डवों को राखी बाँधने वाली घटनाएँ वर्तमान प्रचलित रक्षाबंधन की परम्परा में एक प्रश्नचिह्न खड़ा नहीं करतीं ?
भारत देश के प्राच्य काल में राजपूतों को विजयश्री हेतु उनकी स्त्रियों द्वारा रक्षासूत्र बाँधना, गुरुकुलों में प्राप्त ज्ञान के सही प्रयोग हेतु आशीर्वचन स्वरूप गुरुओं द्वारा शिष्यों को तथा विदाई लेते समय शिष्यों द्वारा गुरुओं को राखी बाँधना; परस्पर में सम्मान की सुरक्षा हेतु पुरोहित यजमान को व यजमान पुरोहित को, इसी तरह भाईचारे को बढ़ावा देने हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्यों का परस्पर में तथा राजस्थान प्रान्त में ननद द्वारा अपनी भाभी को राखी बाँधना, क्या ये रक्षा के सही व उचित मायने को कायम रखकर वर्तमान पद्धति में एक और अध्याय की सृष्टि नहीं करते?
अधिक क्या कहें नेपाल देश के पहाड़ी इलाके में गुरु व भागिनेय (भानजा) के हाथ से रक्षासूत्र के बंधन की परम्परा क्या हमें प्रचलित सीमित दायरे को अधिक बढ़ाने हेतु मजबूर नहीं करती?
इसके अतिरिक्त मुगलकाल के दौर में मेवाड़ राज्य की रक्षा हेतु राणा सांगा की विधवा पत्नी कर्मवती (कर्णवती) द्वारा मुस्लिम राजा हुमायूँ को राखी भेजना तथा अपने पति सिकंदर की रक्षा हेतु हिन्दु शत्रु पुरुवास को राखी बाँधना - ये उदाहरण क्या अन्य धर्मों में भी रक्षाबंधन की प्रथा की ओर संकेत नहीं करते?
शताधिक वर्ष पूर्व जन्मे प्रसिद्ध लेखक रविन्द्रनाथ टैगोर ने रक्षाबंधन के संकुचित अर्थ को तिलांजलि देते हुए इस पर्व को इंसानियत का, भाईचारे का, देश की रक्षा का, पर्यावरण की रक्षा तथा लोगों के हितों की रक्षा का पर्व घोषित किया है।
उपर्युक्त समस्त तथ्यों से प्रतिफलित होता है कि रक्षाबंधन पर्व मात्र हिन्दु धर्म या भाई-बहिन तक सीमित न होकर साम्प्रदायिकता की गंध से परे जन-जन की सुरक्षा की भावना का पर्व है।
जैनधर्म के अनुसार रक्षा की भावना का प्रचलन तो अनादिकाल से ही चला आ रहा है। तथापि जो रक्षाबंधन वर्तमान प्रचलित दिवस को इंगित करता है, उस पर एक घटना विशेष को स्थान दिया गया है। वह घटना है - “अकंपनाचार्य आदि 700 मुनिराजों की रक्षा”।
लाखों वर्षों पूर्व 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ के बाद तथा 20वें तीर्थंकर भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ के काल के पूर्व हस्तिनापुर नगर में उज्जयिनी नगरी का पूर्वमंत्री तथा तत्कालीन सप्तदिवसीय राजा बलि द्वारा पूर्व बैरवशात् अकंपनाचार्य आदि 700 मुनिराजों पर घोर उपसर्ग किया गया, क्षुल्लक पुष्पदंत से इस बात की जानकारी मिलने पर मुनि विष्णुकुमार ने दीक्षा छेदकर बौने ब्राह्मण का रूप बनाकर विक्रियाऋद्धि के प्रयोग से मुनिराजों की रक्षा की। (दिवस-श्रावण की पूर्णिमा)
मुनिराजों की रक्षा का वास्तविक अर्थ है - धर्मात्माओं की रक्षा, धर्मात्माओं की रक्षा का अर्थ है - धर्म की रक्षा तथा धर्म वस्तु के स्वभाव का नाम है। कहा भी है - ‘वत्थु सहावो धम्मो’। वह स्वभाव सदा पर से निरपेक्ष, परिपूर्ण, अपरिवर्तनशील तथा कभी अभाव न होने वाला होता है। जैसे अग्नि का स्वभाव गरम तथा जल का स्वभाव शीतल है; वैसे ही जीव का स्वभाव चेतनस्वरूप (ज्ञान-दर्शन) है तथा अन्य अनन्त द्रव्यों के अपने-अपने स्वभाव सदा पर से निरपेक्ष और परिपूर्ण हैं; वस्तु के ऐसे स्वभाव की स्वीकृति ही सही मायने में रक्षा है।
वास्तव में देखा जाये तो स्वतः रक्षित स्वभाव की रक्षा कौन कर सकता है? क्या कोई अग्नि की उष्णता की रक्षा कर सकता है? पानी की शीतलता की रक्षा कर सकता है? जीव के चेतनादि स्वभावों की रक्षा कर सकता है? कदापि नहीं। साथ ही न ही उनमें परिवर्तन आदि किया जा सकता है। अतः विश्व के समस्त पदार्थों के स्वभाव की यथावत् स्वीकृति ही सच्ची रक्षा है तथा उस रक्षा का दृढ़ संकल्प ही सच्चा रक्षाबंधन है।
उपर्युक्त विवेचन से हम कहेंगे कि श्रावण की पूर्णिमा का दिवस रक्षा के संकल्प का दिवस है; किन्तु भावना की दृष्टि से तो यह पर्व प्रतिदिन व प्रतिक्षण के लिए ही समर्पित है।
अतः हम कह सकते हैं -
भक्षक बने यहाँ कौन जब उस भाव का न अभाव है।
मैं बचा अथवा मार सकता अज्ञ का ये विभाव है,
इस सत्य का स्वीकार ही बस यही रक्षा भाव है।।
Source: जैनपर्व चर्चा, डॉ. प्रवीणकुमार जी शास्त्री