पुरुषार्थ दशक
अन्तरंग में आप निहार, अपना साँचा तारणहार। टेक।।
सर्व विभावों के हो पार, सहज स्वानुभूति के द्वार।
हो निशंक निर्भेद निहार, उछले सुखसागर सु-अपार ।। १ ।।
शाश्वत गुण अनन्त भण्डार, नित्य निरामय प्रभु अविकार
स्वसन्मुख हो सहज निहार, क्लेशोदधि का पाओ पार।।२।।
त्याग सर्व मिथ्या संकल्प, बहु अनर्थकर सर्व विकल्प।
हो निर्द्वन्द्व अहो अवधार, ध्येयरूप त्रिभुवन में सार ।। ३ ।।
महाभाग्य पाये जिननाथ, दर्शाते निज चैतन्यनाथ ।
गुरु निर्ग्रन्थ स्वरूप चितार, शुभ निमित्त पायो सुखकार ।।४।।
अनहोनी तो कभी न होय, होने योग्य सहज ही होय।
मिथ्या कर्ताबुद्धि विडार, सहज सदा वर्ते निर्भार । ॥ ५ ॥
निज में ही साधो परमार्थ, भो आत्मन्! ये ही पुरुषार्थ ।
हो अविरल शिवपद दातार, ये ही दिव्यध्वनि का सार।।६।।
महासाध्य शिवरूप विचार, निजस्वभाव साधन सुखकार।
हो निर्ग्रन्थ लहो अविकार, समयसार नित मङ्गलकार ।।७।।
कर्मरूप विष वृक्षों के फल, बिन भोगे ही करो अफल ।
हो निःशल्य निश्चिंत निहार, ज्ञायक परमेश्वर हितकार।।८।।
भाओ भावना मङ्गलरूप, ध्याओ चिदानन्द चिद्रूप
स्वाभाविक अक्षय शृङ्गार, नियमसार प्रगटे अविकार।।९।।
अन्य न कोई दिखे उपाय, अपने चित्त में थिरता लाय।
रहो सहज ही जाननहार, विलसो नित्यानन्द अपार।।१०।।
~ब्र० रवींद्र जी ‘आत्मन’