पूजा पीठिका - डॉ.हुकमचंद जी भारिल्ल | Puja Pithika - Dr. Hukumchandji bharill

विनय पाठ

(दोहा)
अरहंतों को नमन कर न सिद्ध भगवान।
आचारज उवझाय अर सर्व साधु गुणखान॥1॥
मोक्ष मोक्ष के मार्ग में विद्यमान जो जीव।
यथायोग्य नम कर प्रभो वन्दन करूँ सदीव॥2॥
चौबीसों जिनराज की दिव्यध्वनि अनुसार।
ज्ञानिजनों ने जो लिखी वाणी विविधप्रकार॥3॥
नय-प्रमाण से विविधविध कही तत्त्व की बात।
भविकजनों के लिये जो एकमात्र आधार॥4॥
सब द्रव्यों के सभी गुण अर सामान्य-विशेष।
आज सभी को सहज ही हैं उपलब्ध अशेष॥5॥
जिनवाणी उपलब्ध है उसे बतावनहार।
बहुत अधिक दुर्लभ नहीं उसके जाननहार॥6॥
मोहनींद में जो पड़े नहीं कोई आधार।
साधर्मीजन कम नहीं उन्हें जगावनहार॥7॥
सारा जग बेचेत है मोहनींद के द्वार।
किन्तु हमें उपलब्ध हैं मार्ग बतावनहार॥8॥
महाभाग्य से प्राप्त हो देव-गुरु संयोग।
पर जिनवाणी मात की शरण सहज संयोग॥9॥
उसके अध्ययन मनन से चिन्तन से निजतत्व।
जाना जाता सहज ही होता है सम्यक्त्व॥10॥
जिनवाणी के मर्म को अरे जानने योग्य।
ज्ञान प्रगट पर्याय में होवे सहज संयोगः॥11॥
और कषायें मन्द हों भाव रहें निष्काम।
एक आतमा में लगे छोड़ हजारों कामः॥12॥
देव-गुरु संयोग या जिनवाणी के योग।
तत्व श्रवण में मन लगे और न मन में रोग॥13॥
अरे क्षयोपशम विशुद्धि और देशना लब्धि।
जिसके ये तीनों बने उसे तत्त्व उपलब्धि॥14॥
आतम में अति अधिक रुचि जब होवे सर्वांग।
विशेष तरह की योग्यता वह लब्धि प्रायोग्य॥15॥
आतम का उपयोग जब आतम में रमजाय।
करणलब्धि है आतमा आतम माहि समाय॥16॥
करणलब्धि के अन्त में आतम अनुभव होय।
सम्यग्दर्शन प्राप्त हो मन रोमांचित होय॥17॥
तीर्थंकर चौबीस ही हमें जगावनहार।
जागें आतम में लगे हो जावें भव पार॥18॥
देव-शास्त्र-गुरु की कृपा से कटता संसार।
नमन करूँ इन सभी को भगवन् बारंबार॥19॥
अरे हमारा आतमा आतम में रम जाय।
अन्य न कोई चाह मन आतम माहि समाय॥20॥

पूजा पीठिका

ॐ जय जय जय! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु।

(वीर)
अरहंतों को सब सिद्धों को आचार्यों को करुं प्रणाम।
उपाध्याय एवं त्रिलोक के सर्व साधुओं को अभिराम॥1॥
ॐ ह्रीं अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः पुष्पांजलि क्षिपामि।
अरे चार मंगल हैं जग में अर्हत सिद्ध साहु मंगल।
और केवली कथित जगत में होता परम धरम मंगल॥2॥
और चार ही लोकोत्तम अर्हत सिद्ध साहु उत्तम।
और केवली कथित जगत में होता परम धरम उत्तम॥ ३॥
अरे चार की शरणा जाऊँ अर्हत सिद्ध साहु शरणा।
और केवली कथित लोक में जाऊँ परम धरम शरणा॥4॥

(हरिगीत)
परमेष्ठी सम शुद्धात्मा भी शरण है इस लोक में।
है परम मंगल परम उत्तम शरण भी इस लोक में।
व्यवहार से परमेष्ठी परमार्थ से शुद्धात्मा
की शरण में नित हम रहें जिनमार्ग के आलोक में॥5॥
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा पुष्पांजलि क्षिपामि।

मंगल विधान

(वीर)
हो अपवित्र-पवित्र और सुस्थित हो अथवा दुःस्थित हो।
सब पापों से छूट जाय वह नमोकार को ध्यावे जो॥1॥
हो अपवित्र-पवित्र अधिक क्या किसी अवस्था में भी हो।
अंदर-बाहर से पवित्र निज परमातम को ध्यावे जो॥2॥
अपराजित यह मंत्र सभी विघ्नों का परमविनाशक है।
सभी मंगलों में मंगल यह पावन पहला मंगल है।।3॥
सब पापों का नाशक है यह महामंत्र मंगलमय है।
सभी मंगलों में यह अद्भुत पावन पहला मंगल है।॥4॥
‘अहं’ ये अक्षर परमेष्ठी परमब्रह्म के वाचक हैं।
सिद्धचक्र के बीज मनोहर नमस्कार हम करते हैं।। 5॥
अष्टकर्म से रहित मोक्षलक्ष्मी के सुखद निकेतन हैं।
सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से सहित सिद्ध को नमते हैं।। 6॥
जिनवर की स्तुति करने से विघ्न विलय हो जाते हैं।
भूत डाकिनी एवं विषभय सभी विघ्न टर जाते हैं।। 7॥
(पुष्पांजलि क्षिपेत् )

जिनसहस्रनाम अर्घ्य

(वीर)
जल चन्दन अक्षत सुमन चरु, अर दीप धूप फल द्रव्यमयी।
अर्घ्य समर्पण करता हूँ मैं श्रीजिनवर आनन्दमयी॥
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिनसहस्रनामेभ्योयँ निर्वपामीति स्वाहा।

पूजा प्रतिज्ञा पाठ

(वीर)
अनन्तचतुष्टय पद के धारी स्याद्वाद के नायक की।
पूजन करता नमस्कार कर तीन लोक परमेश्वर की॥
मूलसंघ के सम्यग्दृष्टि उनके सत्कर्मों के हेतु।
मेरे द्वारा कही जा रही यह जैनेन्द्रयज्ञविधि सेतु॥1॥

जिनपुंगव त्रैलोक्य गुरु की स्वस्ति हो कल्याणमयी।
जिनका रे सुस्थित स्वभाव महिमामय है कल्याणमयी।
सहज प्रकाशमयी दृगज्योति मंगल मंगलदाता है।
स्वस्ति मंगल अद्भुत वैभव अति आनन्द प्रदाता है।॥2॥

रे स्वभाव-परभाव सभी को करे प्रकाशित निर्मल ज्ञान।
अमृतमय वह ज्ञान मनोहर उछले अन्तर महिमावान।।
तीन लोक अर तीनकाल में विस्तृत है अति व्यापक है।
तीन लोक एवं त्रिकाल की पर्यायों का ज्ञायक है।। 3॥

यथायोग्य है द्रव्य शुद्धि पर भावशुद्धि पूरी चाहूँ।
अरे विविध आलंबन लेकर शुद्धभाव को अपनाऊँ।
जो सचमुच भूतार्थ पुरुष हैं पावन हैं अतिपावन हैं।
उनकी पूजा करूँ ध्यान से जो अति ही मनभावन हैं।। 4॥

जिनकी केवलज्ञान ज्योति में सभी भाव भासित होते।
वे अर्हन् पुराण पुरुषोत्तम परम भाव भावित होते॥
उनकी केवलज्ञान बह्नि में मैं अपने पूरे मन से।
सभी पुण्य अर्पित करता हूँ निकला चाहूँ भव वन से॥5॥
ॐ यज्ञप्रतिज्ञाये प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपेत्।

स्वस्ति मंगल पाठ

(चौपाई)
स्वस्ति श्री श्री ऋषभ जिनेश, स्वस्ति करें जिनवर अजितेशा
संभव करें असंभव द्वेष, अभिनन्दन दुख हरें अशेष॥1॥
सुमति प्रदाता सुमति जिनेश, पद्मप्रभ जिनवर पद्मेश |
जय सुपार्श्व पारससम जान, चंद्रप्रभ जिन चंद्र समान॥2॥
सुविधिनाथ विधिनाशनहार, शीतल शीतलता दातार।
जय श्रेयांश श्रेय करतार, वासुपूज्य शिवसुख दातार॥3॥
विमल विमल जीवन दातार, श्री अनन्त आनन्द अपार।
धर्म कहें संसार असार, शान्ति अनन्त शान्ति दातार॥4॥
कुन्थु कुन्थु के रक्षणहार, अरजिन आनन्द के अवतार।
जीता है मन मल्लि जिनेश, मुनिसुव्रत व्रत धरें अशेष॥5॥
नमि चरणों में नमें नरेश, जीता मन्मथ नेमि जिनेश।
पारस पारस से दातार, वीर अहिंसा के अवतार॥ 6 ॥

(दोहा)
चौबीसों जिनराज ही मंगल मंगल हेतु।
स्वस्ति स्वरूप विराजहीं सबको मंगल देतु॥7॥
(पुष्पांजलि क्षिपेत् )

परमर्षि स्वस्ति मंगल पाठ

(हरिगीत)
ज्ञानी तपस्वी मुनिवरों को ऋद्धियाँ उपलब्ध हों।
पर ऋद्धियों की सिद्धियों पर रंच न वे मुग्ध हों।
वे तो निरन्तर लीन रहते आतमा के ज्ञान में।
आतमा के चिन्तवन निज आतमा के ध्यान में॥1॥

अरे चौसठ ऋद्धियों में प्रथम केवलज्ञान है।
दूसरी है मनःपर्यय तृतीय अवधीज्ञान है॥
इत्यादि चौसठ ऋद्धियाँ सब ज्ञान का विस्तार है।
रे ज्ञान के विस्तार का न आर है न पार है।॥ 2 ॥

अन्य लौकिक सिद्धियाँ भी ऋद्धियों से प्राप्त हो।
पर मुनिवरों को उन सभी से नहीं कोई राग हो।
वे तो स्वयं में जम गये वे तो स्वयं में रम गये।
सारे जगत से विमुख हो सद्ज्ञान में परिणम गये॥3॥

आतमा के चिन्तवन में आतमा के ज्ञान में।
वे तो निरन्तर लगे रहते आतमा के ध्यान में॥
कैसे कहें उन मुनिवरों से तुम बताओ हे प्रभो।
निज आतमा को छोड़कर हे प्रभो हम पर ध्यान दो॥4॥

नहीं कोई किसी का कुछ भी करे इस लोक में।
यह जानते हैं सभी आगम ज्ञान के आलोक में।
सब जानते हैं समझते व्यवहार में यों बह रहे।
उन ऋद्धिधारी ऋषिवरों से प्रभो फिर भी कह रहे॥5॥

रे ऋद्धिधारी मुनिवरो! कल्याण सब जग का करो।
अज्ञान मोहित जगत की दुर्गति मुनिवर परिहरो॥
यह जगत मिथ्यामार्ग तज सन्मार्ग में वर्तन करे।
जिनशास्त्र का स्वाध्याय कर निजज्ञान का मार्जन करे॥6॥

अन्याय और अनीति छोड़े अभक्ष्य भक्षण न करे।
न्याय एवं नीति से सन्मार्ग पर आगे बढ़े।
होवे अहिंसक आचरण आहार और विहार में।
सावधानी रखें हम व्यवहार में व्यापार में॥7॥

(दोहा)
सभी संत मंगलमयी मंगल के आधार।
मल गाले मंगल करें करें मंगलाचार॥४॥
सभी ऋद्धियों के धनी सभी दिगम्बर संत।
और कछु नहिं चाहिये चाहे भव का अंत॥8॥

इति परमर्षि स्वस्तिमंगलविधानम्
पुष्पांजलि क्षिपेत्

रचयिता : डॉ.हुकमचंद जी भारिल्ल

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