प्रेरणा | Preranaa

दुर्लभ है मनुष्य पर्याय और

जिनोपदेश ।

उससे भी दुर्लभ है

जिनोपदेश का सुहाना अर्थात् अच्छा लगना।

परन्तु सच्चा लगना निर्णय के बल पर

पात्रता है सम्यक्त्व की।

इससे सहज ही उपयोग

होता अन्तर्मुख

और ग्रहण होता है।

निज शुद्धात्मा

सहज ही अकृत्रिम भगवान ।

प्रारम्भ हो जाता है

मुक्ति का मार्ग अर्थात्

अक्षय सुख की साधना ।

जगत से, भोगों से, परिग्रह से

आ जाती है उदासीनता

द्वेषरूप नहीं, राग के अभावरूप

सहज और सच्ची ।

वर्तने लगती है अन्तरंग में

स्व-पर भेदज्ञान की भावना

होने लगती है हेय व उपादेय की

ऊहापोह ।

उपादेय भासता है शुद्धात्मा

शुद्ध रत्नत्रय

जिसके समक्ष लगते हैं

समस्त विकल्प हेय ।

केवल हेय, सहज हेय,

कोई अपेक्षा नहीं

प्रदर्शन और आडम्बर नहीं।

मात्र नग्न दिगम्बर ।

ऊपर से नग्न अन्तर से भी नग्न निर्द्वन्द्व,

निस्पृह सहज आनन्दमय

जिसे दुःखी करने में

असमर्थ है समस्त जगत।

पूज्य हो जाता है

इन्द्रों और चक्रवर्तियों द्वारा भी

परन्तु उसकी पूज्यता है

पर से निरपेक्ष

आत्मीक गुणों से,

वीतराग विज्ञान से,

शुद्ध रत्नत्रय से।

आओ अभ्यासें जिनवाणी,

निर्णय करें तत्त्वों का

समझें, स्व-पर भेद को

करें हम स्वानुभवमयी

सम्यक् श्रद्धा ।

भायें वैराग्य भावना ।

तत्त्वभावना और आत्मभावना

एकाग्र हो जायें निजात्मा में

लीन हो जाएँ, थिर हो जाएँ

और हो जाएँ

पर्याय में भी भगवान ।

रचयिता :-आ० ब्र० रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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