प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद । Pravachansar kalash padyanuvad

प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद

(दोहा)

स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप।
ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप ।।१।।
महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज ।
सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ।।२।।
प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु
वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु ।।३।।
(मनहरण कवित्त)

जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ।।
भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ।।
मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आत्मा ।।
पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये।
सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ।।४।।

विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुँ ओर के,
चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये।
अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम,
विलसत सहजानन्द मय जानिये।।
नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन,
शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये ।
नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आत्मा,
स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ।।५।।

आत्मा में विद्यमान ज्ञान तत्त्व पहिचान,
पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से।
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के उपरान्त स अब,
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन करते हैं चाव से।
सामान्य और असामान्य ज्ञेय तत्त्व सब,
जानने के लिए द्रव्य गुण पर्याय से
मोह अंकुर उत्पन्न न हो इसलिए,
ज्ञेय का स्वरूप बतलाते विस्तार से।।६।।

जिसने बनाई भिन्न भिन्न द्रव्यनि से ।
और आतमा एक ओर को हटा दिया ।।
जिसने विशेष किये लीन सामान्य में ।
और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया।
ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही।
निज आतमा का स्वभाव समझा दिया ।।
और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर ।
इस आतमा को आतमा में ही लगा दिया ।।७।।

इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर ।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ।।
इस भाँति आत्मा का तत्त्व उपलब्ध कर।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया।
ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल।
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया।
आपनी ही महिमामय परकाशमान ।
रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ।।८।।

(दोहा)

अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान ।
अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान ।।९।।
ज्ञेय तत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द ।
उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द ।।१०।।
शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय ।
स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय ।।११।।
चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार।
शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ।।१२।।
द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य ।
यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध ।।१३।।
जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब।
इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ।।१४।।
(मनहरण कवित्त)

उपसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है ।।
पुराणपुरुषों के द्वारा सादर हैं सेवित जो ।
उन्हें प्राप्तकर संत हुए जो पवित्र है ।।
चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में।
क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके।।
सभी ओर से सदा वास करो निज में ।।१५।।

इसप्रकार जो प्रतिपादन के अनुसार।
एक होकर भी अनेक रूप होता है।
निश्चयनय से तो मात्र एकाग्रता ही।
पर व्यवहार से तीन रूप होता है ।।
ऐसे मोक्षमार्ग के अचलालम्बन से।
ज्ञाता-दृष्टाभाव को निज में ही बाँध ले ।।
उल्लसित चेतना का अतुल विलास लख ।
आत्मीकसुख प्राप्त करे अल्पकाल में ।।१६।।

इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही।
शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके ।।
सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से।
आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ।।
अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय ।
सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही जान लो ।।
ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः।
अपने में आपही नित अनुभव करो ।।१७।।

अब इस शास्त्र के मुकुटमणि के समान ।
पाँच सूत्र निर्मल पंचरत्न गाये हैं।
जो जिनदेव अरहंत भगवान के।
अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशे हैं।
अद्भुत पंचरत्न भिन्न-भिन्न पंथवाली।
भव-अपवर्ग की व्यतिरेकी दशा को ।।
तप्त-संतप्त इस जगत के सामने ।
प्रगटित करते हुये जयवंत वर्तो।।१८॥

(दोहा)

स्याद्वादमय नय प्रमाण से दिखे न कुछ भी अन्य।
अनंत धर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ।।१९।।
(हरिगीत)

आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई।
अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ।।
जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा ।
स्याद्चिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो ।।२०।।

वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है।
और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता कहे हैं।।
इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन!।
स्याद् विद्याबल से निजा निराकुल होकर नचो।२१।।

चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो।
थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयं स्वाहा हो गया ।।
निज आत्मा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना।
इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो ।।२२।।

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