मेरा उर आलोकित करदो…
अन्धकार में भटक रहा हूँ, दिखती मुझको राह नहीं है,
दिव्य-ज्योति से ज्योतित कर दो, मुझको केवल चाह यही है। निकल सकूँ इस संकट से, भगवन्! मुझको ऐसा वर दो।
मेरा उर आलोकित करदो ॥ १ ॥
छल-छद्मों के बीच ठगों सा, मुँह बाये पाखण्ड खड़ा है,
रूढ़ि, अन्धविश्वासों ने मिल मानव का मानस जकड़ा है।
इनसे बचकर रहूँ सदा मैं, ऐसा मुझ में साहस भर दो।
मेरा उर आलोकित कर दो || २ ||
दर्शन औ ज्ञान स्वरूपी मैंने अपना रूप भुलाया,
अपना स्वर्णिम सुखमय जीवन, अब तक यों ही व्यर्थ गंवाया। नीरस को अति सरस बनाऊँ, ऐसा मुझको शुभ अवसर दो।
मेरा उर आलोकित करदो || ३ ||
हूँ स्वतंत्र मैं नाम मात्रका, उच्छृंखलता मुझ में व्यापी,
आदर्शों से दूर हटा हूँ बढ़ी हुई है आपा-धापी ।
इसको जड़ से मिटा सकूँ मैं, महाशक्ति वह मुझमें भर दो।
मेरा उर आलोकित करदो ॥४॥
सत्य अहिंसा पाठ भुलाकर जन-जन की है पीर- बढ़ाई,
आत्म-प्रशंसा, पर-निन्दा में समझी मैंने पूर्ण भलाई।
किन्तु द्वन्द्व है अन्तस्तल में, उसे मिटा अमृतरस भरदो ॥
मेरा उर आलोकित करदो ॥५॥
- अनूपचन्द जैन न्यायतीर्थ, जयपुर