(तर्ज: प्रभु पै यह वरदान सु पाऊँ… )
प्रभुवर अन्तर्मुख हो जाऊँ॥ टेक॥
देहादिक से भिन्न ज्ञानमय, ज्ञायक सहज लखाऊँ।
मिथ्या बहिर्दृष्टि प्रभु छूटे, अन्तर्दृष्टि पाऊँ॥1॥
स्याद्गरादमय जिन-आगम का, निज अभ्यास बढ़ाऊँ।
अनेकांतमय तत्त्व भावना, अंतरंग से भाऊँ॥2॥
मिटे वासना इन्द्रिय सुख की, सुख अतीन्द्रिय पाऊँ।
मिथ्या-प्रभुता का मद छूटे, निज प्रभुता प्रगटाऊँ॥3॥
होय विरागी सब परिग्रह तज, निर्ग्रन्थ पद अपनाऊँ।
परमानंदमय परमातम पद, परम हर्ष से ध्याऊँ॥4॥
कर्म कलंक समूल नशाऊँ, आवागमन मिटाऊँ।
नित्य निरंजन स्वाभाविक श्रुव, अचल सिद्ध पद पाऊँ॥5॥
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण