प्रभु पै यह वरदान सुपाऊँ।
फिर जग कीच बीच नहीं आऊँ ।।टेक।।
जल गंधाक्षत पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुंदर लाऊँ।
आनंद जनक कनक भाजन धरि, अर्घ्य अनर्घ्य हेतु पद ध्याऊँ ।।1।।
आगम के अभ्यास माँहि पुनि, चित एकाग्र सदैव लगाऊँ।
संतनि की संगति तजि के मैं, अंत कहूँ इक छिन नहीं जाऊँ ।।2।।
दोष वाद में मौन रहूँ फिर, पुण्य पुरुष गुण निश दिन गाउँ।
राग द्वेष सब ही को टारी, वीतराग निज भाव बढाऊँ ।।3।।
बाहिर दृष्टि खेंच के अंदर, परमानंद स्वरूप लखाऊँ।
‘भागचंद’ शिव प्राप्त न जौलौं, तौलों तुम चारणाम्बुज ध्याऊँ ।।4।।
Artist - कविवर भागचंद जी