(तर्ज- गगन मंडल में उड़ जाऊँ…)
प्रभु की अदभुत छवि निरखो-2।।
साँचे नेता मोक्षमार्ग के, वीतराग परखो।।टेक।।
धन्य प्रभु की नासा दृष्टि सिखलावे हमको।।
सुख शान्ति तो अन्तर में ही, पर में नहीं भटको।।1।।
हाथ पै हाथ धरै ऐसे प्रभु, उपदेशे सबको।
छोड़ो मिथ्या अहंकार पर, मॉही कर्तृत्व को। 2 ।।
यथाजात आनन्द रूप, अचलासन मुद्रा को।
देख निहारो अन्तर माँही, निज ज्ञायक प्रभु को।।3।।
करो सर्वथा बन्द अरे ! पर्यायार्थिक चक्षु को।
खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु से, अदभुत छवि निरखो।4।।
स्वयं स्वयं में तृप्त रहो, ध्यावो निज आतम को।
छोड़ो ममता धारो समता, पाओगे प्रभु को ।।5।।
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’