पूजा पीठिका- ब्र. श्री रवीन्द्र जी 'आत्मन्'। Pooja Peethika - Br. Shri Ravindraji 'Aatman'

(दोहा)
अरिहंत सिद्ध सूरि नामा, उवझाय साधु गुणधामा।
परमेष्ठी पद सुखकारी, पूजन करिहौं दुखहारी।।

ॐ ह्रीं अनादि मूल मंत्रेभ्यो नमः पुष्पांजलिं क्षिपामि।

चार मंगल शरण श्रेष्ठ हैं लोक में,
आप्त अरु सिद्ध साधु दयामय धरम।
अन्य में ढूंढना सुख दुखकार है,
वे स्वयं सुख रहित सुख न उनका मर्म।।
हे प्रभो आपको लख ये निश्चय हुआ,
शरण अपनी से कटते स्वयं सब कर्म।
बाह्य दृष्टि तजूं अब निजातम भजूँ,
लीन निज में हुए से मिले पद परम।।

ॐ नमो अर्हते स्वाहा पुष्पांजलिं क्षिपामि।

पूजा प्रतिज्ञा पाठ

हूँ द्रव्यदृष्टि से अति पवित्र, परिणति ही मात्र अपावन है।
चिर से ही पर में भ्रमित रही, शुचिकारी तव आराधन है।।
हे प्रभो! शांत नासाग्र दृष्टि, थिर मुद्रा हमें बताती है।
शांति शुचिता अंतर में है, बाहर से कभी न आती है।।
है रूप हमारा मंगलमय, आराध्य हमारे मंगलमय।
रागादि विकारी भाव भगें, परिणति भी होवे मंगलमय।।
तुम नाम मंत्र है मंगलमय, हे कर्ममुक्त तुम मंगलमय।
सम्यक्त्व आदि गुण युक्त सिद्ध मैं, नमन करूँ हे मंगलमय।।
हों दुख सभी तत्त्क्षण विनष्ट, स्मरण किये तुम सम निज रूप।
डाकिनी भूत पिशाच नागगद, सभी दूर हों है शिवभूप।।
इति पुष्पांजलिं क्षिपामि

श्रीजिन सहस्रनाम अर्घ्य

गुण अनंत हैं प्रभु आपके, मेरी है सामर्थ्य कहाँ।
सहस्र नाम से अर्चन कर के, अर्घ्य चढ़ाऊँ आज यहाँ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिनस्य अष्टाधिक सहस्त्रनामेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा…।

जो तीन लोक स्वामी, मुक्ति रमापति हैं।
हैं स्याद्वाद नायक, सानंत चार जो हैं।।
कर वंदना उन्हीं की, पूजा विधि करूँगा।
जो भव्य प्राणियों को, हैं पुण्य बंध हेतु।।
निज आत्म रूप महिमा, जिनने प्रगट दिखाई।
ऐसे त्रिलोक गुरुजन, पुंगव स्वस्ति दायक।।
उन पूर्ण ज्ञान दर्शन, आनंद वीर्य वैभव।
दें प्रेरणा सतत, मुक्ति हेतु मुझको।।
निज भाव द्रव्यदृष्टि, से शुद्ध मैंने जाना।
पर्याय शुद्धि हेतु, अवलंब मैन लीना।।

बहु युक्तियों से अब तो, रागादि कर विनष्ट।
भूतार्थ यज्ञ द्वारा, मैं भी प्रभु बनूंगा।।
अर्हत पुराण पुरुषोत्तम, हे जगत हितंकर।
सब वस्तुएं तजूंगा, निज पूर्ण ज्ञान हेतु।।
नित पुण्य पाप द्वारा, परिणति हुई विकारी।
मैं पाप तो तजा है, अब पुण्य भी तजूंगा।।

पुष्पांजलिम क्षिपामि

(मत्तसवैया)

श्री ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति सुमति प्रदायक हैं।
श्री पद्मप्रभ अरु श्री सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ स्वस्ति दायक हैं।।
श्री पुष्पदंत शीतल श्रेयांस, श्री वासुपूज्य और विमल प्रभो।
श्री अनंत धर्म और शांति कुन्थु, मंगलमय मुक्ति विधायक हैं।।
अरनाथ मल्लि मुनिसुव्रत जी, नमिनाथ नेमि अरु पार्श्व प्रभो।
श्री वर्धमान जिन सुख वर्धक, निज पर विवेक प्रगटायक हैं।।
इन सम ही जड़ वैभव तजकर, सम्यक्त्वी इच्छामुक्त बनें।
निज का पुरुषार्थ मूल कारण, ये ही व्यवहार सहायक हैं।।
हो जिनवाणी अभ्यास सदा, तत्त्वों का सम्यक निर्णय हो।
रागादि विकारी भाव भगें, जिनवाणी स्वस्ति दायक हो।।
द्रव्यानुयोग चरणानुयोग से, सत श्रद्धा चारित्र धरें।
प्रथमानुयोग करणानुयोग, द्रग-ज्ञान-वृत्ति दृढ़ स्वच्छ करें।।
हैं बुद्धि ऋद्धियाँ प्रगट जिन्हें, पर लक्ष्य नहीं उन पर जिनका।
तप घोर करें, आकाश चलें, है पार नहीं जिनके बल का।।
मन वाँछित रूप बना सकते, भारी हल्का लंबा छोटा।
जो सर्वोषधियों की निधि हैं, ऋद्धि अक्षीण से न टोटा।।
पर नहीं प्रयोग करें इनका, निज ख्याति-लाभ-पूजा हेतु।
उन सम जड़ वैभव ठुकराऊँ, तब होवें वे मुक्ति सेतु।।
पुष्पांजलिं क्षिपामि

रचयिता:- ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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