सभी जीवों की परिणति तीन प्रकार से बताई गई है - पुण्य, पाप और शुद्ध (राग हरनी)।
#1 उनमें पुण्य-पाप परिणति (शुभाशुभ) बन्धरूप होती है जिससे कर्म बन्धन होता है और शुद्ध वीतराग परिणति भवरूपी समुद्र को पार कराती है।
#2 जबतक मनोज्ञ शुद्धोपयोग प्राप्त न हो तबतक ही पुण्य परिणति करने योग्य कही है।
#3 पुण्य (शुभ) रूप परिणति को त्यागकर पाप के कार्य मत करो किन्तु शुभ में मगन होकर शुद्ध परिणति को भूलना नहीं चाहिए।
#4 ऊँची-ऊँची दशा को धारणकर चित्त के प्रमाद को खत्मकर ऊँची दशा से नीची दशा को ओर मत गिरना।
#5 भागचंद जी (स्वयं से या हम सब से) कह रहे हैं कि इसप्रकार ही जीव अपार सुख को प्राप्त करता है। इसका निर्धारण करना ही (इस विषय में) स्याद्वाद की कथन पद्धति है।