पण्डित भागचंद जी | Pandit Bhaagchand ji

[श्री पं० भागचन्दजी का जीवन दर्शन]

कविवर पंडित भागचन्दजी १९ वीं शताब्दी के विद्वान थे। ये ईसागढ़ (ग्वालियर) के निवासी थे। इनकी जाति ओसवाल और धर्म दिगम्बर जैन था। आपका जन्म ( क्षमा भावाष्टक वृद्धिचन्दजी के अनुसार ) संवत् १८७७ में कार्तिक बदी तृतीया को हुआ था। क्षमा भावाष्टक के निम्न दोहे से इनके जन्म का पता चलता है :

अष्टादश सित्योत्तरे, कार्तिक वदि शुभ तीज ।
ईसागढ़ को जन्म थो, भागचन्द गुनि बीज ।।

कविवर संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी के प्रौढ़ विद्वान थे। ‘महावीराष्टक’ उनकी स्वतन्त्र संस्कृत रचना है। जिससे यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि वे हिन्दी के समान संस्कृत भाषा में भी सुन्दर पद्य रचना कर सकते थे। इसके अतिरिक्त अभी तक आपकी निम्न रचनायें प्राप्त हुई हैं — जिसमें उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला, भाषा प्रमाण परीक्षा भाषा, अमित गति श्रावकाचार भाषा, नेमिनाथ पुराण, ज्ञान सूर्योदय नाटक आदि की भाषा वचनिकायें पद संग्रह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी कृतियां संवत् १९०७ से १९१३ तक लिखी गई हैं। जिससे ज्ञात होता है, कि यह उनके साहित्यिक जीवन का स्वर्ण युग था।

भागचन्दजी उच्च विचारक एवं आत्मचिन्तन करने वाले विद्वान थे। पदों से आत्मा एवं परमात्मा के सम्बन्ध में उनके सुलझे हुए विचारों का पता चल सकता है। ‘सुमर सदा मन आतमराम’ पद से इनके आत्मचिन्तन का पता चलता है। ‘जब निज आतम अनुभव आवै, तब और कछु न सुहावै’ इनमें एकाग्र चित्त रहने का लक्षण है। कवि के अब तक ८६ पद उपलब्ध हो चुके हैं जो सभी उच्च स्तर के हैं।

कविवर ओसवाल जाति के दिगम्बर आम्नाय के नररत्न थे। आपकी कविताओं एवं पदों में हृदय की सच्ची अनुभूति झलकती है, वे आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं। आप निरन्तर चिन्तन, मनन और अध्ययन में संलग्न रहते थे। इसी कारण आपके पदों में दार्शनिकता, भाव-विभोरता, तन्मयता एवं आत्मानुभूति के दर्शन होते हैं। मोह को छोड़ विवेक अपनाने बहिर्मुखी के स्थान पर अन्तर्मुखी होने का संकेत उनके प्रत्येक पद में दिखाई पड़ता है। कविवर किस प्रकार मोक्ष के अभिलाषी हैं देखिये

कब मैं साधु स्वरूप धरूंगा ।।
बंधु वर्ग से मोह त्याग कै, जनकादि जन सों उबरूंगा । तुम जनकादिक देह सम्बन्धी, तुमसों मैं उपजूं न मरूंगा। श्री गुरु निकट जाय तिन वच सुन, उभयलिंग धर वन विचरूंगा ।
अन्तर्मूच्र्छा त्याग नगन ह्वै, बाहिरता की हेति हरूंगा ।
दर्शन ज्ञान चरन तप बीरज, या विधि पंचाचार चरूंगा । तावत् निश्चल होय आप में, पर परणामनि सो उबरूंगा। चाखि स्वरूपानन्द सुधारस, चाह दाह में नाहिं जरूंगा । शुक्लध्यान बल गुण श्रेणी चढ़ि, परमातम पद सों न टरूंगा।
काल अनन्तानन्त जथारथ, रहहूं फिर न विमान चढूंगा । भागचन्द निरद्वन्द निराकुल, यासो नहिं भवभ्रमण करूँगा।

कविवर की भाषा टीकाएं सरल भाषा में गूढ़ रहस्य समझाने में समर्थ हुई हैं। इससे कविवर का पांडित्य भी सिद्ध होता है। अपने पदों में कवि ने जैनधर्मं एवं मानव धर्म के सिद्धान्तों का भावपूर्ण विवेचन किया है। पंडितजी ने अपने जीवन में जो सेवा-कार्य किये, उन्होंने उसकी कोई सूची बनाई हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। हाँ, साहित्यिक सेवा कार्य भी उन्होंने अपनी धार्मिक भावना के अनुसार किये हैं।

कहा जाता है कि पंडितजी को अपने अन्तिम जीवन में आर्थिक हीनता का कष्ट सहन करना पड़ा था, क्योंकि लक्ष्मी और विद्या का परस्पर बैर है, नीति भी ऐसी ही है कि पण्डितजन निर्धन होते हैं, हां इसके प्रतिकूल कुछ अपवाद भी देखने को मिलते हैं। पण्डित जी जहाँ विवेकी थे, वहाँ सहनशील भी थे, उन्होंने दरिद्र देव का स्वागत किया, परन्तु किसी से धन पाने की आकांक्षा तक व्यक्त नहीं की, फिर भी एक उदार सज्जन ने उन्हें दुकान आदि देकर उनकी धार्थिक कठिनाई को हल कर दिया । आर्थिक हल हो जाने पर भी पण्डितजी में वही सन्तोषवृत्ति अपने उसी रूप में दीख रही थी। आपने ५६ वर्ष की आयु पाई थी। आपको मृत्यु संवत् १९३३ में आषाढ़ कृष्ण द्वादशी के दो बजे दिन को समाधि मरण पूर्वक हुई। अपने भावों एवं कृतियों के अनुकूल कविवर को पण्डित मरण का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

कविवर पं० भागचन्द्रजी के समाधिमरण का दृश्य देखिये श्री वृद्धिचन्दजी के शब्दों में (क्षमा भावाष्टक से)

रात रही दोपहर जब, यम ने डाली जाल ।
ता बन्धन कूं काटवै, दियो परिग्रह डाल ।।
धर्मी कूं बुलाई आप आयु की चेताई,
काल आन पहुँचो भाई, हम सिद्ध सरण पाई है ।।
वस्त्र दूरी डारी, केश हाथ से उपारी,
पद्म आसन कूं धारी, बैठे तृण को बिछाई है ।।
अब सांस की चढ़ाई, पहर चार तक पाई,
तबै नवकार सुनाई, पास बैठे सबै भाई है ।।
बारस की तिथी पाई दुपैरो पै दो बजाई,
भाईजी पधारे, पर गति शुभ-पाई है ॥

भागचन्दजी को भाईजी कहते थे। इनका समाधिमरण मन्दसौर में ही हुआ। सेठ जोधराजजी मन्दसौर निवासी सेठ हजारीलाल जी बाकलीवाल के पितामह थे, इन्हीं सेठ की हवेली में ही आपका समाधिमरण हुआ । ‘धन्य वे निरीह विद्वान और गुणानुरागी श्रावक’।

[ ‘सन्मति सन्देश’ सन् १६७४ के जून व अगस्त अड्ड में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ‘सरोज’ एम० ए० जावरा तथा श्री रतनचन्द जैन ‘रत्नेश’ एम० ए० एम० एड०, व्याख्याता, लामटा द्वारा लिखे गये लेख के आधार से ]

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