ओमकारमयी वाणी तेरी, जिनधर्म की शान है।
समवशरण देख के, शांत छवि देख के, गणधर भी हैरान है ।।टेक।।
स्वर्णकमल पर आसान है तेरा, सौ इंद्र कर रहे गुणगान हैं।
दृष्टि है तेरी नासा के ऊपर, सर्वज्ञता ही तेरी शान है।।
चांद सितारों में लाख हज़ारों में, तेरी यहाँ कोई मिसाल नहीं है।
चार मुख दिखते, समवशरण में, स्वर्ग में भी ऐसा कमाल नहीं है।।
हमको भी, मुक्ति मिले, बस इतना अरमान है ।।1।।
सारे जहां में फैली ये वाणी, गणधर ने गूँथी इसे शास्त्र में।
सच्ची विनय से श्रद्धा करे तो, ले जाती है मुक्ति के मार्ग में।।
कषायें मिटाए, राग को नशाये, इसके श्रवण से ये शांति मिलती है।
सुख का ये सागर, आत्म में रमण कर, आतम की बगिया में मुक्ति खिली है।।
हम सब भी तुमसा बनें, ऐसा ये वरदान है ।।2।।
मैं हूँ त्रिकाली ज्ञान स्वभावी, दिव्यध्वनि का यही सार है।
शक्ति अनन्त का पिंड अखंड, पर्याय का भी ये आधार है।।
ज्ञेय झलकते हैं, ज्ञान की कला में, कैसा ये अद्भुत कलाकार है।
सृष्टि को पीता, फिर भी अछूता, तुझमें ही ऐसा चमत्कार है।।
जग में है महिमा तेरी, गूँज रहा नाम है ।।3।।
लेखक - पं. अभय कुमार जी शास्त्री देवलाली