ओ चिन्मय ! | O chinmay

विस्मय होता रे तेरे उन विश्वासों पर
जिनकी कोई धरती, कोई गगन नहीं है!
मृग - मरीचि को रहे तुम्हारे प्राण समर्पित
जिसमें सलिल नहीं है ठहरे हो उस तट पर
मिट्टी में ही रहा अहं जिसका कल्पों से
रत्नराशि उसको कैसे देगा रत्नाकर
छलनाओं से छला गया हो बुद्धि - कोष जो
उसको पैदा करके वसुधा बांझ रही है

तुमने उगता सूरज रोजाना देखा है
वह यौवन भी देखा जिसको झांक न पाये
किन्तु सान्ध्य की अन्तिम श्वासों में सच बोलो
तुम सूरज का चेहरा तक पहचान न पाये
जीवन का अवलम्ब बनाया उनको तुमने
जिनका अपना ही कोई अवलम्ब नहीं है

शम्पाओं की तप्त-परिधि में खूब तपे हो
और खपे हो इन्द्रभवन की मधुशाला में
क्रीतदास तुम सदा रहे हो रूपावलि के
तुम्हें सुहाई सदा विषय की विष-कन्यायें
अरे रूप के लोलुप ! इतना समझ न पाये
इस बस्ती में तेरा कोई रूप नहीं है

अरे ! पाप की मदमाती काली रातों में
तुम बेहोश रहे मद पी-पीकर जहरीले
और पुण्य के मधुर दास्य की धवल निशा में
तूने अपना रूप निहारा ओ गर्वीले
गर्म और ठण्डी श्वासे ये पाप - पुण्य की
अरे ! मृत्यु की अगवानी है, अमन नहीं है

मिट्टी से ही सदा रहे हैं रिश्ते तेरे
चिर अनन्त मिट्टी ही तेरी साध रही है
तेरे त्याग-तपस्या सब मिट्टी पर ठहरे
पुण्य - पाप का आकर्षण सब मिट्टी ही है
ओ चिन्मय ! मिट्टी के दावेदार रहे हो
मिट्टी की ममता छोटा अपराध नहीं है

रे ! मिट्टी के जड़ अणुओं की शक्ति अपरिमित
अणुभर भी यदि स्खलन चित्त में अणु पर होता
सह नहिं पाता मिट्टी का कण इस अनीति को
जटिल आणविक बन्धन तत्क्षण निर्मित होता
पीड़ाओं की संतति चलती रहती है यों
क्योंकि निरन्तर प्रज्ञा अणु में व्यस्त रही है

प्रलय सृष्टि से पार शान्त-एकान्त-विजन में
अरे ! देह में ही विदेह चिन्मय अमि-घट रे
किन्तु मृत्यु के कृत्रिम-तन्तु कल्पना बुनती
आत्मतत्त्व तो सब सन्दर्भो में अक्षय रे
हिम शैलों पर हमने रवि को तपते देखा
पर हिम के शीतल अन्तस् में तपन नहीं है

अन्धकार में क्रन्दन करता कोई बोला
‘अरे ! अँधेरा निर्दय मुझको निगल गया रे’
किन्तु किसी के करुण-स्पर्श ने तभी पुकारा
“बोल रहे हो, फिर कहते तम निगल गया रे”
अरे! आत्म-विस्मृति के तम की घन-परतों में
यों चिन्मय मणि-दीप प्रदीप्त निरन्तर ही है

अरे विश्व तो जड़-चेतन की अकृत नगरी
सब स्वतन्त्र क्रीड़ा करते अपने सदनों में
यहाँ नहीं अवकाश अतिक्रमण का किंचित् भी
अतिक्रमण का यत्न चीखता है नरकों में
वीतराग दर्शन का यह अन्तस्तल छू लो
संसृति के दारुण कष्टों का अन्त यहीं है

पैठो, पैठो अतल शून्य के तल में पैठो
मदिर सुरभि बहती है अगणित शक्ति सुमन की
वहाँ पराये का कोई भी देश नहीं है
सबकी सब है सिर्फ अरे! अपनों की बस्ती
तम के परिकर का उस तल को स्पर्श नहीं रे
अरे! चिरन्तन चित्-प्रकाश का भवन वही है

Artist: आदरणीय बाबू जुगलकिशोर जी 'युगल
Source: Chaitanya Vatika

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