नित्य भावना | Nitya Bhaavna

“नित्य - भावना”

मैं एक ज्ञायकभाव भाऊँ, अन्य वांछा कुछ नहीं।
अनुभूति ज्ञायकभावमय, वर्ते सुकाल अनन्त ही।।

सविकल्पता में हे प्रभो !, पुरुषार्थ ऐसा ही करूँ ।
चैतन्य प्राप्ति का निमित्त, अरहंत का दर्शन करूँ ।।

चिन्तन सुसिद्ध स्वरूप का, कर भेदज्ञान हृदय धरूँ ।
निष्कर्म ध्रुव अरु अचल अनुपम, स्वयं सिद्धस्वरूप हूँ ।।

कर वंदना आचार्य की, नित द्रव्य एवं भाव से ।
निर्ग्रन्थ दीक्षा की अहो! हो भावना अतिचाव से ।।

उपाध्याय गुरुवर के समीप, सुज्ञान का अभ्यास हो ।
संतुष्टि हो आराधना में, नहीं पर की आस हो ।।

हो साधुजन की संगति अरु, असंगपद की दृष्टि हो ।
जग से उदासी हो सहज, वैराग्यमय मम सृष्टि हो ।।

जिन चैत्य-चैत्यालय अकृत्रिम, कृत्रिम भी अति भा रहे ।
अशरण जगत में शरण सुखमय, ये ही प्रभु दर्शा रहे ।।

जग में न कोई दूसरी, जिनवाणी माँ व्यवहार है ।
इस दुःषम भीषण काल में, जिनवाणी ही आधार है ।।

जिनधर्म ही सत्यार्थ भासे, सहज वस्तु स्वभाव है।
जो है अहिंसा रूप जिसमें, नहिं विराधक भाव है ।।

है मूल सम्यकदर्श जिसका, ज्ञानमय जो धर्म है ।
अवकाश नहिं है रूढ़ियों का, साम्य जिसका मर्म है ।।

लक्षण कहे दश धर्म के, सब ही को मंगलरूप है ।
व्याधि-उपाधि नहीं जिनमें, सहज आत्मस्वरूप है ।।

इस धर्म की ही हो सदा, जगमाँहिं परम प्रभावना।
स्वप्न में भी हो नहीं, किंचित् कभी दुर्भावना ।।

मैत्री रहे सब प्राणियों से, गुणीजनों में मोद हो ।
दीन-दु:खियों पर दया, विपरीत पर नहीं क्षोभ हो ।।

संवेग अरु वैराग्य वृद्धिगत सदा होते रहें ।
उर -भूमि में नित धर्म के ही, बीज शुभ बोते रहें ।।

हो धर्मपर्वों प्रति सहज, उत्साह अन्तर में सदा ।
समभाव मंगलमय रहे कुछ, पाप नहीं लागे कदा ।।

मूर्छा न हो परभाव में, एकान्त का सेवन करूँ ।
नित तीर्थक्षेत्रों में अहो ! आनन्द का वेदन करूँ ।।

निरपेक्ष हो स्वाधीन हो मम वृत्ति हो चिद् ब्रह्ममय ।
हो ब्रह्मचर्य परमार्थ पूर्ण स्वपद लहूँ अक्षय अभय ।।

रचयिता : ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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