नीति वचन | Niti Vachan

संपूर्ण पुस्तक
आ० ब्र० रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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प्रथम संस्करण :

आध्यात्मिक तत्त्व संगोष्ठी

३१०० प्रतियाँ

श्री कुन्दकुन्द नगर, सोनागिर सिद्धक्षेत्र

दिनांक 11 फरवरी से 14 फरवरी 2021 के अवसर पर प्रकाशितः

सहयोगः

  1. वाणीभूषण पं. ज्ञानचन्द जी व श्रीमती कमलाबाई जी विदिशा की पुण्य स्मृति में परिवारजन द्वारा ।

  2. स्व. श्री अजित कुमार जी जैन की पुण्य स्मृति में श्रीमती पुष्पलता जी जैन जीजीबाई, छिंदवाड़ा द्वारा ।

प्रकाशक : श्री वर्द्धमान न्यास

(पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट) अमायन, भिण्ड (म.प्र.) 477227 मोबा. 9826225580

क्रीमत: ₹२०/ -

NEETI VACHAN (Hindi) by Br. Ravindraji “Aatman”

Price : ₹20.00


प्रकाशकीय

‘सुनीति’ - जो व्यक्ति, समाज एवं देश को शान्ति और समृद्धि की ओर ले जाये, प्रशंसनीय बनाये । शैक्षणिक योग्यता होने पर भी व्यवहार कुशलता के

बिना सफलता मिलना कठिन है। नीतिवान व्यक्ति सिद्धान्तों पर दृढ़ रहता है, कुसंग में पड़कर लोक निंद्य कार्यों या कुव्यसनों में फँसकर अपना जीवन, स्वास्थ्य, सम्पदा, पद-प्रतिष्ठा को नष्ट नहीं करता मिथ्या स्वार्थी, लालची, ईर्ष्यालु नहीं होता, भयभीत नहीं रहता, किसी का बुरा सोचता भी नहीं जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति नहीं चाहता वैसा व्यवहार दूसरों के साथ भी नहीं करता । उसका चित्त सदा शान्त और प्रसन्न रहता है। प्रतिकूलताओं में धैर्य नहीं खोता । सफल नाविक की तरह वह अपनी जीवन नौका को इष्ट गन्तव्य की ओर ले जाते हुए पीछे आने वालों के लिए पदचिह्न छोड़ जाता है।

जैसे ज्ञान बिना आचरण कार्यकारी नहीं है वैसे ही आचरण के बिना ज्ञान मात्र पर्याप्त नहीं है। विचारो ! कहीं भोजन के ज्ञान मात्र से भूख मिटती है? औषधि की जानकारी मात्र से स्वस्थ होते हैं? पुस्तक ‘नीति वचन’ भी मात्र अध्ययन के लिए नहीं अपितु आचरण के लिए हमें प्रेरणा दे रही है। हम नीतिवान रहते हुए धार्मिक हो सकते हैं। बिना नीतिवान हुए हमारे धार्मिक अनुष्ठान न हमें शान्ति देते हैं, न श्रेय और न ही प्रभावना के निमित्त बनते हैं।

पुस्तक को बारम्बार पढ़ें! विचारें! और आगे बढ़ाते रहें। दीप से दीप जलाते हुए सदाचरण का प्रकाश फैलाते रहें।

हम सभी अपने गौरवमयी साहित्य का गम्भीरता और आदरपूर्वक अध्ययन करें, मंगलमयी संस्कृति को पहिचानें और स्व-पर का कल्याण करें - यही भावना है।

सभी सहयोगियों के आभार के साथ-साथ भविष्य में भी इसी प्रकार निस्पृहतापूर्वक सहयोग की अपेक्षा है।

मन्त्री

अखिल जैन

श्री वर्द्धमान न्यास अमायन (भिण्ड )


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(१) मैत्री आदि भावनाएं व्यक्ति को प्रशंसनीय एवं पूज्य बनाती हैं।
(२) कार्य शीघ्र ही नहीं, सुंदर भी करें।
(३) सम्बन्धों की मधुरता के लिए मधुर संबोधन करें।
(४) जिसे अपमान बुरा लगता है, उसे सम्मान की चाह है।
(५) निराशावादी दृष्टिकोण प्रायः असफलता ही देता है।
(६) ज्ञान के बिना वैराग्य सफल नहीं होता और वैराग्य के बिना ज्ञान सुरक्षित नहीं रहता।
(७) संयोगों के छूटने मात्र से दु:ख दूर नहीं होता है।
(८) कर्त्तृत्व का अहंकार व स्वच्छंद भोगवृत्ति ही कलह के कारण हैं।
( ९ ) बाहर की उलझनें पुण्य से व अन्तर की उलझनें ज्ञानाभ्यास से सुलझती हैं।
(१०) विनय ज्ञान की पात्रता भी है और ज्ञान का फल भी ।

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(११) स्वभाव के लाभ के बिना लोभ का अभाव होना संभव नहीं है।
(१२) आत्मज्ञान के बिना बाह्य तप, ताप रूप हो जाते हैं।
(१३) दान हाथों की शोभा तो है ही, हृदय की उदारता का भी परिचायक है।
(१४) भाग्यशाली वे नहीं जिनके पास परिग्रह है, भाग्यशाली वे हैं जिन्हें परिग्रह की चाह नहीं है।
(१५) संस्कारों की सुरक्षा संपत्ति की सुरक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(१६) ये कषायें हमें कहीं नहीं रहने देंगी, कहीं का नहीं रहने देंगी।
(१७) गुप्त पाप से बड़ा पाप नहीं, गुप्त पुण्य से बड़ा पुण्य नहीं और गुप्ति से बड़ा धर्म नहीं ।
(१८) ज्ञानी के जीवन में कुशलता होती है, अज्ञानी के जीवन में कलुषता ।
(१९) कषाय का प्रारंभ अज्ञान से व अन्त पश्चाताप से होता है ।
(२०) इच्छा रूपी रोग की औषधि भोग नहीं, त्याग है।

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(२१) साधना की सफलता समता व सहनशीलता से है।
(२२) श्रेष्ठ जीवन की आधारशिला श्रेष्ठ चिंतन है।
(२३) उत्तेजित होना और दुःखी होना अपने को कमजोर बनाना है।
(२४) धनादि सामग्री जीव को पुण्य के उदय में भी सुखी नहीं करती व धर्म पाप के उदय में भी सुखी करता है।
(२५) किसी-किसी प्रसंग में विवेकपूर्वक मौन रहना बोलने से अधिक हितकर होता है।
(२६) लक्ष्य विहीन जीवन शिथिलाचार को पुष्ट करता है ।
(२७) पुण्य के उदय में किसी को कुछ न समझने वाला, पाप के उदय की एक ठोकर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।